ब्रह्म कमंडल से निकली यह जीवन अमृत धारा है l
शिव जट-जूट उलझकर रह गई, वहीं से ही विस्तारा है ll
पाल रही हो वसुंधरा को, हरित वर्ण हरियाली है l
रूप अनेकों रचित तुम्हारे, अनुपम छटा निराली है ll
मन पवित्र हो पाकर तुमको, शीश नवाते सभी सुखी l
सदियों से अविरल बहती हो, मानव न हो कभी दुःखी ll
एक बूँद से तन तर जाए, यही प्रताप तुम्हारा है l
ब्रह्म कमंडल से निकली यह जीवन अमृत धारा है ll
सुरसरिता, सुरसरि, देवसरी, देवपगा, मन्दाकिनी हो l
भगीरथी, ध्रुवनंदा, जान्हवी, सुरध्वनि, हो वर दायिनी हो ll
नदीशवरी, त्रिपथगा, सुरधुनि, हिमपुत्री तुम देव नदी l
जाने कितने नाम अलंकृत, एकमात्र तुम विष्णुपदी ll
अमरतरंगिनी अमृतधारा, मिलता यहीं किनारा है l
ब्रह्म कमंडल से निकली यह जीवन अमृत धारा है ll
जन्म-मरण तक सँग बहो तुम बूँद-बूँद अमृत तेरा l
बिना तुम्हारे पावन जल के मुक्त नहीं हो तन मेरा ll
भारत का गौरव बन करके, पूजनीय कहलाती हो l
प्राण दायिनी माता तुम ही, धरती स्वर्ग बनाती हो ll
महिमा गान करें जन-जन, सब देवों ने स्वीकारा है l
ब्रह्म कमंडल से निकली यह जीवन अमृत धारा है ll
किन्तु स्वार्थ वश मानव ने असुरों सा खेल दिखाया l
अमृत जल को विष में बदला, जीवन नर्क बनाया ll
कहीं बहे शव तेरे जल में, कहीं प्रदूषण बहता है l
अद्भुत यह वीभत्स दृश्य है, फिर भी अमृत रहता है ll
मीठा ही जल रहे सदा यह बने कभी न खारा है l
ब्रह्म कमंडल से निकली यह जीवन अमृत धारा है ll
✍️ स्वरचित
अजय श्रीवास्तव 'विकल'