एक गाँव की पहली लालटेन - दिनेश शर्मा
वैद्य जी वापस आए तो टिन के सन्दूक में से बड़े
एहतियात से एक डिब्बा निकाला गया और बड़ी नफ़ासत के साथ धीरे धीरे खोला गया | उसमें से हरे रंग की चमकती हुई एक लालटेन निकली जिसमें काँच की एक चिमनी
बड़ी कुशलता से जड़ी हुई थी | वैद्य मामचंद्र ऋषिकेश में इस
प्रकार की कई लालटेन देख चुका था इसलिए फ़ौरन पहचान गया और बड़ी ख़ुशी से उछल पड़ा
“पिताजी यो तो बहुत बढ़िया चीज़ लाए आप | अब तो हवा में भी
बत्ती ना बुझणे की |” गाँव में उन दिनों प्रकाश का एकमात्र
साधन तेल के दिए और ढिबरियाँ थीं – जो घरों के अन्दर टिमटिमाती रहती थीं | बड़े जतन से ओट में रखना पड़ता था जिससे कि हवा का झोंका आते ही न बुझ जाए |
उस दिन शाम को जब मामचंद्र ने लालटेन जलाई तो तकनीकी
तरक्की का एक नायाब नमूना पूरे गाँव ने देखा | सफ़ेद रंग की बत्ती लालटेन की चिमनी के बीचों बीच एक झिर्री में से झाँक
रही थी | एक गोल नॉब को घुमाते ही बत्ती ऊपर नीचे होती थी |
एक छोटा सा लॉकनुमा हुक लालटेन को चिमनी के नीचे छोटे से टैंक के
साथ जोड़े हुए था | मिट्टी के तेल के टैंक में गोल घूम कर
खुलने और बन्द होने वाला एक छोटा सा ढक्कन था जिसको हटाकर मिट्टी का तेल लालटेन
में भरा जाता था | लालटेन के साथ साथ वैद्यजी एक टीन के
लम्बे से डिब्बे में मिट्टी का तेल भी शहर से लाए थे – क्योंकि गाँव में तो मिट्टी
का तेल मिलता नहीं था | मामचंद्र को वैद्यजी ने ख़ास हिदायत
दी थी कि लालटेन शाम को दो घंटे से ऊपर नहीं जलानी है नहीं तो मिट्टी का तेल ख़त्म
हो जाएगा जल्दी और फिर तेल लेने शहर जाना पड़ेगा |
अब शहर जाना कोई आसान काम नहीं था उन दिनों | गाँव से पांच मील दूर पर बरला गाँव तक सड़क कच्ची थी – तो वो रास्ता या तो
पैदल या फिर इक्के टाँगे से तय होता था | परिवार के साथ जाने
के लिए किसी किसान की बैलगाड़ी या झोंटा गाड़ी माँगी जाती थी या फिर पूरा इक्का
किराए पर लिया जाता था | बरला गाँव दिल्ली को देहरादून से
जोड़ने वाली पक्की सड़क पर है | वहाँ से नज़दीक शहर मुज़फ्फ़रनगर
बारह मील के फ़ासले पर है और उन दिनों में एक एक घंटे के फ़ासले पर दस बारह बसें या
माल ढोने वाली खुली लारियाँ मिल जाती थीं |
मामचंद्र ने दिन में ही लॉक सरकाकर लालटेन की चिमनी
पलटकर, तेल डालकर, सफ़ेद
बत्ती को वापस तेल के टैंक में डालकर, वापस लॉक लगाकर,
गर्म हवा निकलने वाली जाली को ऊपर खिसकाकर, चिमनी
वापस अपनी जगह बैठाकर सेट कर लिया था | दो तार के बैल्टनुमा
क्रॉस से – जो कि लालटेन की चेसिस का हिस्सा थे – चमकती हुई चिमनी एकदम सुरक्षित
थी | हवा निकलने वाली जाली में ऊपर की तरफ एक कुंडा लगा हुआ
था जिसको ऊपर खींचते ही पूरी चिमनी ऊपर उठ जाती थी और सफ़ेद रंग की बत्ती जलाने के
लिए नीचे साफ़ नज़र आने लगती थी | कुंडा छोड़ते ही चिमनी एक
स्प्रिंग मैकेनिज्म के सहारे नीचे आकर वापस उसी तरह सेट हो जाती थी | चिमनी को बैल्ट में से निकाल कर साफ़ करने के लिए भी फिर उसी तरह हवा
निकलने वाली जाली को ही उठाकर रखा जाता था | लालटेन के फ्रेम
में कुण्डों के सहारे दोनों तरफ कसा हुआ एक गोल लूपनुमा हैंडल था जिसके सहारे
लालटेन को उठाकर इधर उधर ले जाया जा सकता था या फिर कील या खूँटी के सहारे दीवार
या पेड़ या किसी भी जगह लटकाया जा सकता था |
शाम हो चुकी थी | गाँव में ख़बर फ़ैल चुकी थी कि “वैद्यजी ऐसा दीवा ल्याये हैं अक सुसरी कितनी
भी हवा चललो पर बुझणे की नी |” बसेड़ा गाँव की यह पहली लालटेन
थी | वैद्यजी के दवाखाने के चबूतरे पर लालटेन को देखने के
लिए धीरे धीरे भीड़ जमा हो रही थी | जिन्होंने पास के शहर
मुज़फ्फ़रनगर में ऐसी ही लटकती लालटेनें दुकानों पर देखी थीं उनके लिए भले ही ख़ास
बात नहीं थी – पर निश्चित ही बसेड़ा गाँव के शहरीकरण की दिशा में यह एक महत्वपूर्ण
क़दम था |
लकड़ी के स्टूल पर बीचों बीच नई नवेली दुल्हन की तरह
चमकती लजाती लालटेन विराजमान थी | मामचंद्र बारहवीं बार
लालटेन के टेक्नीकल फंक्शन्स को समझा रहा था तभी गाँव के सरपंच चौधरी जगतसिंह का
आगमन हुआ | महावीर ने तुरन्त मूढा लाकर ठीक लालटेन के सामने
बिछा दिया | वैद्यजी के आग्रह पर सरपंच साहब मूढ़े पर
विराजमान हुए तो वैद्यजी का आदेश हुआ “भाई मामचंद्र, लालटेन
जलाओ |” मामचंद्र तो इसी की प्रतीक्षा में था | तुरन्त स्टूल के बगल में नीचे बैठकर हुक के सहारे चिमनी ऊपर उठाई गई,
महावीर ने दियासलाई सुर्र से घिसी और भक्क से जलाई और बत्ती को छुआई
| बत्ती ने तुरन्त आग पकड़ ली तो मामचंद्र ने वापस हुक को
रिलीज़ किया और चिमनी वापस अपनी जगह पर आकर फिट हो गई | गोल
नॉब घुमाकर बत्ती को ऊपर नीचे करके एडजस्ट किया गया तो लालटेन का पीला पीला प्रकाश
चबूतरे पर चारों तरफ फ़ैल गया | जो लोग आगे लालटेन के बहुत
नज़दीक खड़े थे – उनके कारण पीछे के लोग नहीं देख पा रहे थे – तो पीछे से शोर हुआ
“भाई आग्गे वाले साहेबान बैठ जावें तो पिच्छे वालों को भी कुछ दिक्खे |”
तो थोड़ी ही देर में लालटेन के चारों तरफ दर्शकों का
घेरा बन चुका था | वैसे हवा नहीं चल रही
थी – पर महावीर ने फूँक मारकर दिखाया कि कैसे हवा चलने पर भी लालटेन नहीं बुझेगी |
चार साल का वेदप्रकाश भी गोद में चढ़ा हुआ सारा तमाशा हैरानी से देख
रहा था | कुछ लोग लालटेन को हाथ में लेने को बेताब थे पर
सरपंच साहब ने आदेश दिया “ब कोई तमाश्शा है क्या यो जो हाथ में ठाओगे – अर जो हाथ
म तो गिरके टूटगी तो कौण देग्गा हर्ज्जाना |” अलबत्ता सरपंच
साहब ने खुद लालटेन हाथ में उठाकर चबूतरे पर नवाबी अन्दाज़ में चक्कर लगाकर फ़रमान
सुनाया “भाई बैद जी या तो सव्हरी बढ़िया चीज़ है – भाई हमें भी ल्यादो ऐसी लालटैण |”
बाद में दवाखाना बन्द करके “लालटैण” घर की तरफ ले जाई
गई । पूरा गाँव जलूस की शक्ल में लालटेन को विदाई देने वैद्यजी के घर तक गया | अगले कुछ दिनों में वैद्यजी का रुतबा गाँव में और भी ऊँचा हुआ और कई दिनों
तक लालटेन को देखने आने वालों की भीड़ पड़ोस के गाँवों से भी आती रही | कई बार तो मामचंद्र को दिन में भी कई बार लालटेन जलाकर दिखानी पड़ती थी |
जल्दी ही मिट्टी के तेल का रिजर्व समाप्त हो गया और एक बार फिर तेल
का दिया जलाना पड़ा तो वैद्यजी का परिवार एडजस्ट नहीं हो पाया और मामचंद्र को
ख़ासतौर से मिट्टी का तेल लाने शहर भेजा गया |