डॉ दिनेश शर्मा के यात्रा वृत्तान्त की
एक झलक... बातों ही बातों में एक युग का पूरा एक सफ़र तय करा दिया... बहुत
सुन्दर...
चलो थोड़ा घूमने चलें -दिनेश डॉक्टर
उन्नीस बरस पहले अक्टूबर 1998 में यही वक्त रहा होगा जब उस दिन फिलिप मुझे पेरिस में गार द ईस्ट स्टेशन
पर सुबह सुबह छोड़ने आया था । तब भी मैं पेरिस से फ्रेंकफर्ट जाने वाली ट्रेन पकड़
रहा था । एक दूसरे से बतियाते हम बातों में इतने मशगूल हो गए कि ट्रेन के ऑटोमेटिक
दरवाजे लॉक हो गए और ट्रेन चलने लगी । फिलिप एकदम घबरा गया क्योंकि अगला स्टेशन दो
घंटे बाद जर्मनी के बॉर्डर स्ट्रासबर्ग में था और फिलिप के पास न पासपोर्ट था और न
ही कोई आई डी प्रूफ । तब तक यूरोपीय यूनियन और शेनजेन देशो के बीच कोई करार भी नही
था जैसा आज है । मैं भी एकदम घबरा गया । ट्रेन रफ्तार पकड़ने लगी थी । मैं बदहवासी
में दरवाजा खोलने वाला बटन बार बार पुश कर रहा था कि पता नही कैसे दरवाजा खुल गया
और फिलिप गाड़ी से नीचे कूद गया । बैलेंस बिगड़ कर गिरते गिरते बचा पर सँभल गया ।
दरवाजा फिर अपने आप बन्द होकर लॉक हो गया । जैसे ही ट्रेन चली मुझे वो सारी घटना
वैसी की वैसी याद हो आयी ।
तब यही सफर छह घंटे में पूरा होता था लेकिन आज चार
घंटे में ही उससे बहुत ज्यादा आरामदायक ट्रेन में साढ़े पांच सौ किलोमीटर का रास्ता
बड़ी आसानी से कट जाता है । मुझे ट्रेन की यात्रा बहुत पसंद है । खास तौर पर यूरोप
में तो ट्रेन में सफर करना खासा रूमानी अनुभव है । हरे भरे खेत खलिहान, आंखों को सुहाने वाली मीलों तक फैली हरी घास, खूबसूरत
नदियां और पहाड़, तरतीब से बसे पुराने गांव और छोटे छोटे
कस्बों के आकर्षक गिरजाघर देखते देखते मन ही नही भरता । ट्रेन तेज रफ्तार से भागी
चली जा रही है । सुबह सात बजे चली थी । स्ट्रासबर्ग बस आने ही वाला है । अभी ट्रेन
की पेंट्री कार से चाय लेकर आया हूँ और धीरे धीरे ठेठ हिंदुस्तानी अंदाज में सुड़क
रहा हूँ । सामने की सीटों पर दो कम उम्र की खूबसूरत लड़कियां अपने अपने स्मार्ट फोन्स
में खोई हुई हैं । एक ने कान में ईयर प्लग्स लगा रक्खे हैं शायद कोई फिल्म देखने
में मशगूल है । दूसरी शायद कोई वीडियो गेम खेल रही है।
अभी अभी ट्रेन एक लंबी टनल से गुजरी तो मेरे कान थोड़ी
देर को बंद हो गए । तेज़ रफ़्तार से ट्रेन जैसे ही किसी सुरंग से गुजरती है तो पता
नही कान क्यों बन्द हो जाते हैं । पहले ट्रेन यात्रा के दौरान यात्रीगण एक दूसरे
से बात कर लेते थे । परस्पर एक दूसरे के शहर समाज और परिवार की सूचनाओ को बांट कर
रास्ता भी कट जाता था और ज्ञान वर्धन भी हो जाता था । सहयात्रियों के बीच कभी कभी
तो बड़ी प्रगाढ़ मित्रता भी हो जाया करती थी और यात्रा के बाद कई बार तो खतो ख़ितावत
का सिलसिला भी शुरू हो जाया करता था । वार्तालाप की शुरुआत अक्सर ऐसे होती थी
"और भाई साहब कहाँ तक जा रहे हो ? अच्छा
सहारनपुर जा रहे हो ! अरे वहां तो मेरी बुआ की लड़की ब्याही है । आप कौन से मोहल्ले
में रहते हो जी वहां ?" और जनाब बातचीत शुरू । फिर कुछ
राजनीति का तड़का तो कुछ बदलते ज़माने का ज़िक्र । कुछ लड़के लड़कियों के बेशर्म फैशन
के चर्चे तो कुछ बढ़ती महंगाई और 'हमारे जमाने में घी रुपये
का सेर था' की ठंडी सांस के साथ पुरानी यादें ताज़ा करने की दिलचस्पी
। और बात बात में रास्ता खत्म । "अच्छा जी भाई साहब हमारा स्टेशन तो आ गया ।
कभी सहारनपुर आना हो तो मिलना ज़रूर जी । अब ये मानना कि आपका अपना घर है यहाँ
" ! और फिर ऐसे ही किसी दूसरे तीसरे यात्री से चर्चा परिचय ।
और अगर ट्रेन लंबी दूरी की हो यानी कि बम्बई, लखनऊ या कलकत्ते जाने वाली तो फिर तो कहने ही क्या । इधर खाने का पैकेट
खुला तो उधर देसी घी की पूरियों और अचार की सौंधी सौंधी महक पूरे कंपार्टमेंट में
तैरती हुए हर नथूने में घुस कर मुंह में लार पैदा कर ही देती थी । "आओ भाई
साहब आ जाओ आप भी खाओ, फिकर ना करो खाना बहुत है हमारे पास,
अजी या तो भगवान की नेमत है जी" से चर्चा शुरू होकर कैसे कैसे
रिश्ते बन जाते थे । लोग बीच बीच में सिगरेटें भी सुलगाते थे और कुल्हड़ों में चाय
भी सुड़कते थे । किसी स्टेशन का समोसा मशहूर था तो किसी संडीले का लड्डू । कहीं
गोधरा की चाय के इंतज़ार में यात्री हुलकते थे तो किसी स्टेशन पर झाल वाले सरसों के
तेल की झाल मुड़ी नाक और आंखों में पानी टपकाती थी । कहीं मूंगफली के साथ हरी मिर्च
और नमक की पुड़िया मिलती थी तो कहीं हरे हरे पत्तों पर पकोड़ियां या पूरियां ।
पिछली बार जब मैंने अपने ही देश में ट्रेन यात्रा की
तो नज़ारा एकदम अलग था । हालांकि ट्रेन तथाकथित सभ्रांत शताब्दी एक्सप्रेस थी तो भी
ज्यादातर यात्री ऊंची ऊंची आवाज में बड़े भद्दे तरीके से मोबाइल फोन पर बेवजह फालतू
की बातें कर रहे थे । मुझे लगा कि बाते कम हो रही थी दूसरे सहयात्रियों को जताया
ज्यादा रहा था कि हम बहुत ऊंचे पद पर हैं या बहुत पैसे वाले हैं । पूरिया पराठे और
अचार की खुशबू गायब थी । लोग बर्गर कटलेट सेन्डविच और चिप्स खा रहे थे और पेप्सी
पी रहे थे । ज्यादातर यात्री सहयात्रियों को पूरी तरह नज़रअंदाज कर खुद ही में खोए
हुए थे । एकाध यात्री अखबार भी पढ़ रहा था । परिवार के साथ यात्रा करने वाले
यात्रियों का भी यही हाल था । परिवार के सब सदस्य छोटे बच्चों से लेकर बड़ों तक
अपने अपने फ़ोनों में ही घुसे हुए थे । आपस में बात थी तो सिर्फ इतनी, अरे तूने ये खा लिया, पापा मैं आपकी पेप्सी पीलूँ,
अरे चिप्स का नया पैकेट खोल लो, घर में कोई
फोन नही उठा रहा, वगैरा वगैरा ।
इसी बीच दो स्टेशन आकर निकल चुके हैं । मेरे सामने
वाली दोनों लड़कियां पिछले वाले स्टेशन कार्ल्सह्यू में उतर गई थी । अब न कोई बगल
में है और न ही सामने वाली सीटों पर । फ्रेंकफर्ट का रास्ता अभी एक घंटे का बचा है
। ट्रेन की रफ्तार धीरे धीरे कम हो रही है । अगला स्टेशन मानहाइम आने ही वाला है।
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