कर्मयोग – कर्म की तीन
संज्ञाएँ
जैसा कि पहले लिखा, कर्ता के भाव के अनुसार कर्म की तीन संज्ञाएँ होती हैं – कर्म, अकर्म और विकर्म | इन तीन संज्ञाओं के साथ साथ हमारे
शास्त्रकारों ने कर्म के तीन रूप भी बताए हैं | इनमें प्रथम है संचित कर्म | अनेक
जन्मों से लेकर अब तक के संगृहीत कर्म ही संचित कर्म कहलाते हैं | कर्म तब तक
क्रियारूप में रहते हैं जब तक वे क्रियमाण होते हैं, और पूरा होते ही तत्काल संचित
बन जाते हैं | संचित केवल प्रेरणा देता है, तदनुसार कार्य करने को बाध्य नहीं करता
| कर्म करने में तो मनुष्य का वर्तमान समय का पुरुषार्थ ही प्रधान कारण होता है |
यदि यह पुरुषार्थ संचित के अनुकूल होगा तो उसके द्वारा उत्पन्न हुई कर्म प्रेरणा में
सहायक सिद्ध होगा, और यदि प्रतिकूल होगा तो उस कर्म प्रेरणा को रोक भी देगा |
उदाहरण के लिये यदि वर्तमान में कोई व्यक्ति अच्छी संगति में रहता है और उसके
संचित भी वैसे ही हैं तो वह सदा अच्छे कर्म ही करेगा, किन्तु संचित तो श्रेष्ठ हैं
लेकिन वर्तमान में संगति अच्छी नहीं है तो उस व्यक्ति को अच्छे कर्म करने में
कठिनाई होगी | पुरुषार्थ संचित के प्रतिकूल होने के कारण वह समय पर अच्छे कर्म
करने से वंचित रह जाएगा |
कर्म का दूसरा रूप है प्रारब्ध | पाप पुण्य के संचित में
से कुछ अंश एक जन्म के भोग के उद्देश्य से प्रारब्ध बनता है | इस प्रकार जब तक
संचित शेष रहता है प्रारब्ध बनता रहता है, और संचय की समाप्ति होते ही मोक्ष हो
जाता है | प्रारब्ध का यह भोग भी दो प्रकार का होता है | चित्त की भावनाओं के
द्वारा किया गया भोग मानसिक होता है – जैसे सब प्रकार से सुखी होने के बाद भी कोई
व्यक्ति चिंतित रहता है तो यह मानसिक भोग अथवा प्रारब्ध होता है | दूसरा रूप होता
है सुख दु:खादि की प्राप्ति | यह दैवयोग अथवा स्वेच्छा से भी होता है – जैसे अचानक
किसी दुर्घटना का घट जाना अथवा जान बूझकर आग में कूद जाना |
कर्म का तीसरा रूप है क्रियमाण | स्वेच्छा से किया गया
कर्म क्रियमाण होता है और यह फलभोग के लिये बाध्य करता है | इस प्रकार संचित से
प्रेरणा, प्रेरणा से क्रियमाण, क्रियमाण से पुनः संचित और उस संचित के अंश से
प्रारब्ध – इस प्रकार कर्म प्रवाह जीवन में निरन्तर तब तक प्रवाहित होता रहता है
जब तक एक एक संचित कर्म समाप्त नहीं हो जाता, और जब प्रारब्ध भोग कर सारा संचित
समाप्त हो जाता है तब प्राप्त होती है मुक्ति | इतना तो निश्चित है कि बिना भोग के
मुक्ति नहीं, किन्तु यह भोग अथवा इसके लिये किया गया कर्म निष्काम होना चाहिये |
क्योंकि सकाम होते ही फिर से वह संचित हो जाएगा |
अब फिर से प्रश्न उत्पन्न होता है कि निष्काम कर्म की
परिभाषा क्या है ? गीता के अनुसार भगवदर्पण भाव से भगवत्प्रीत्यर्थ अनासक्त भाव से
तथा फल की इच्छा से रहित होकर जो कर्म किया जाता है वह मुक्ति का साधन होता है |
शास्त्रोक्त विधि से सकाम कर्म करने वाला उस सिद्धि को तो प्राप्त कर लेता है
जिसके लिये उसने वह कर्म किया है, किन्तु मुक्ति नहीं प्राप्त कर सकता | गीता में
यत्र तत्र सर्वत्र इसी आशय के कथन उपलब्ध होते हैं | निष्काम कर्म का महत्व बताते
हुए गीता में कहा गया है “निहाभिक्रमनाशोSस्ति प्रत्यवायो
न विद्यते, स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात् ||” (2/40)
इस निष्काम कर्मयोग में न तो आरम्भ का नाश है, न ही
विपरीत फल का दोष है, अतः इस निष्काम कर्मयोगरूप धर्म का थोड़ा सा भी साधन जन्म
मृत्यु के महान भय से उद्धार कर देता है | निष्काम भाव से कर्म करने का एकमात्र
हेतु परमात्मतत्व की प्राप्ति रह जाता है | उसका लक्ष्य इंतना ऊँचा हो जाता है कि
उसे बाहरी फलों का कोई ध्यान ही नहीं रहता | वह उस परमात्मतत्व के सामने जगत के
बड़े से बड़े पदार्थों को भी तुच्छ समझता है “दूरेण
ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनन्जय, बुद्धो शरणमन्विच्छ कृपण: फलहेतव: ||” (2/49)
इस प्रकार गीता में कहीं भी कर्महीनता का समर्थन नहीं
मिया गया है, अपितु कर्म के लिये प्रेरित करते हुए उसे निष्काम भाव से करने का
पक्ष लिया गया है | और गीता का निष्काम कर्मयोग सर्वथा भक्तिमिश्रित है तथा फल और
आसक्ति का त्याग कर भगवान की आज्ञानुसार भगवदर्थ समत्व बुद्धि से शास्त्रविहित
कर्मों को करना ही उसका स्वरूप है | इसी कारण से वह मुक्ति का साधन है “सर्वकर्माण्यपि सदा कुर्वाणो मद्व्यपाश्रय:, मत्प्रसादादवाप्नोति
शाश्वतं पदमव्ययम् | चेतसा सर्व कर्माणि मयि संन्यस्य मत्परः,
बुद्धियोगमुपाश्रित्य मच्चित्त: स ततं भव ||” (18/56,57)