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कविता

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ऐसी मेरी एक बहना हैनन्ही छोटी सी चुलबुल सीघर आँगन मे वो बुलबुल सीफूलो सी जिसकी मुस्कान हैजिसके अस्तित्व से घर मे जान हैउसके बारे मे क्या लिखूवो खुद ही एक पहचान हैमै चरण पदिक हू अगर वो हीरो जड़ा एक गहना हैऐसी मेरी एक .बहना है………..कितनी खुशिया थी उस पल मेजब साथ-२ हम खेला करतेछोटी छोटी सी नाराजीतो कभी

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बहुतो ने गवयी  अपनी जान कोआपकी राह देखतेआजा अबतो बरसआपके न आने सेधरती ओर जिंदगीबंजर सी हो गई  हैआजा अबतो बरसआपकी  बेरुखी नेकितनो की उल्झन बढाईअपनो से बिछडकेकितनो ने मिटा दिया अपने आपकोआजा अबतो बरस जबतक  देखेंगे नलहरते खेत को धरती परन सुकून मिलेगा उनको जन्नत मे भीआजा अबतो बरसबहुतो का उजडा है चमनअबके

लड़की देखन आय रहे, लड़का वाले लोग,दादी के पकवानों का, लगा रहे सब भोग.सबसे पहले केरी के, शरबत की तरावट,पनीर टिक्का चटपटा, दूर करे थकावट.फिर आया मशरूम संग, मटर भरा समोसाथोड़ी देर में दादी ने, परसा मद्रासी डोसा.पेट भरा पर जीभ तो, मांगे थोड़ा और,डिनर में व्यंजनों का, फिर चला इक दौर.भरवां भिंडी संग लगी, मिस्

विज्ञान और धर्म की ऐसी एक पहचान होविज्ञान ही धर्म हो और धर्म ही विज्ञान हो|आतंक हिंसा भेदभाव मिटें इस संसार सेएक नया युग बने रहे जहाँ सब प्यार से||विज्ञान जो है सिमट गया उसकी नयी पहचान होमेरा तो कहना है, कि हर आदमी इंशान हो||हर आदमी पढ़े बढ़े नये-2 अनुसंधान होउन्नति के रास्ते चले, पर सावधान हो||प्या

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तैयार की जाती है औरतें इसी तरह रोज छेदी जाती है उनके सब्र की सिल हथौड़ी से चोट होती है उनके विश्वास पर और छैनी करती है तार – तार उनके आत्मसम्मान को कि तब तैयार होती है औरत पूरी तरह से चाहे जैसे रखो रहेगी पहले थोड़ा विरोध थोडा दर्द जरुर निकलेगा आहिस्ते – आहिस्ते सब गायब और पुनश्च दी जाती है धार क्रूर

बिन तुम्हें बताए, मोहब्बत करते हैं तुमसेबिन तुम्हारा नाम लिए, मोहब्बत करते हैं तुमसेबिन तुम्हें देखे, मोहब्बत करते हैं तुमसेबिन तुम्हारे क़रीब रहकर, मोहब्बत करते हैं तुमसेबिन तुम्हारी आवाज़ सुने, मोहब्बत करते हैं तुमसेबिन तुम्हारी नज़रों में डूबे, मोहब्बत करते हैं तुमसेबिन तुम्हारे दिल में समाए, मोह

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सावन के बादल उमड़ -घुमड़ इतनी करते मन-मयूर नाच उठता कदम हैं थिरकते। धरती का आंचल हर दिशा हरा-भरा कर देते।  कृषक,साहुकार,जन-सामान्य फलते-फूलते। नदी,तालाब,सिंधु,पोखर सब उमगते जीव-जंतु खुशहाल विचरते दिखते। बाल-वृन्द,नौजवान वृद्ध सब विहसते अपनी-अपनी तरह से खूब आनंद लेते। प्रकृति के रंग क्या अदभुत नित सवंर

@@@@@@ पपीहा बोले पीहू-पीहू @@@@@@ ********************************************************** जान लिया जीवन का सार ,लोग कहते हैं इसको प्यार | सार बहुत ही गहरा है ,जिस पे हो गये सभी निसार || क्यों बचे फिर मैं और तू ,पपीहा बोले पीहू पीहू | बसन्त की बहारों में,सावन की फुवारों में | गाने वाले गाते गाते

तपिश ज़ज़्बातोंकी मन में,न जाने क्योंबढ़ी जाती ?मैं औरत हूँ तोऔरत हूँ,मग़र अबला कहीजाती ।उजाला घर मे जोकरती,उजालों से हीडरती है ।वह घर के हीउजालों से,न जाने क्योंडरी जाती ?जो नदिया हैपरम् पावन,बुझाती प्यास तनमन की ।समन्दर में मग़रप्यासी,वही नदिया मरीजाती ।इज़्ज़त है जोघर-घर की,वही बेइज़्ज़तहोती है ।

हर साल आने वाली बाढ़ हमारे प्रदेश के नेता लोग के बच्चों के लिए मनोरंजन का एक विलक्षण माध्यम है. प्रस्तुत कविता में एक नेता के बच्चे की मानवीय संवेदना से ओत-प्रोत बालसुलभ लालसा का वर्णन किया गया है. नेताजी के बच्चे की बाढ़ ग्रस्त क्षेत्रों में लोकप्रियता बढ़ाने के लिए इस कविता को कक्षा पाँच के पाठ्यक

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सुनो ज़रा !जैसे बारिश की बूँदें ढूंढें पता,गरम तपते मैदानों का.जैसे माँ के आने का देता था बता,सुन शोर पायल की आवाज़ों का.वैसे ही गर महसूस कर सको मुझे आज,बग़ल की खाली जगह पर,हर हसने वाली वजह पर,बिन बात हुई किसी जिरह पर.कह दो न,जैसे,तुम ‘झूठमूठ’ का कहते थे,और हम ‘सचमुच’ का मान लेते थे.जैसे,तुम कह देते थे

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कौन जाने  आग पानी कब तलक,     बेवफ़ा ढलती  जवानी  कब तलक।  आज  खोलें चाहतों की सीपियाँ,मोतियों की महरबानी कब तलक।  रौशनी के पर लगाकर तितलियां,  खोजती अपनी निशानी कब तलक हाथ में खंजर उठाकर चल दिये,इस तरह रश्में निभानी कब तलक।  टूट जाते हो खिलौनों की तरह,अस्थि पिंजर हैं छुपानी कब तलक। क़ैद से बागी  परिं

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 आपसमें हम रूठ गए जो, हाथ हमारे छूट गए जो । ऐसेमें अब तुम ही बोलो, कौन मनाएगा फिर किसको ।|अहम् तुम्हारा बहुत बड़ा है, मुझमेंभी कुछ मान भरा है । नहींबढ़ेंगे आगे जो हम, कौन भगाएगा इस "मैं" को ।।जीवन पथ है संकरीला सा, ऊबड़खाबड़ और सूना सा । चलेअकेले, कोई आकर राह दिखाएगा फिर किसको ||यों ही रूठे रहे अगर हम,

मै गुमनाम रही, कभी बदनाम रहीमुझसे हमेशा रूठी रही शोहरत,तुम्हारी पहली पसंद थी मैफिर क्यो कहते हो मुझे दूसरी औरत ||ज़ुबान से स्वीकारा मुझे तुमनेपर अपने हृदय से नही,मै कोई वस्तु तो ना थीजिसे रख कर भूल जाओगे कहींअंतः मन मे सम्हाल कर रखोबस इतनी सी ही तो है मेरी हसरतपर क्यो कहते हो मुझे दूसरी औरत||तुम्हार

कवि:- शिवदत्त श्रोत्रियहम बनाएँगे अपना घरहोगा नया कोई रास्ता होगी नयी कोई डगरछोड़ अपनी रह तुम चली आना सीधी इधर||मार्ग को ना खोजना ना सोचना गंतव्य किधरमंज़िल वही बन जाएगी साथ चलेंगे हम जिधर||कुछ दूर मेरे साथ चलो तब ही तो तुम जानोगीहर ओर अजनबी होंगे लेकिन ना होगा

जख्म गहरा था मगर, हमने दिखाया ही नहीउन्होने पूछा ही नही, हमने बताया ही नही|फिर जिन यादो को, भुलाने मे जीवन बितायालेकिन हमने कहाँ, यादो ने सताया ही नही|मरके भी वो कब्र मे, कब से जाग रहा हैपर जाने वाला तो कभी, लौट कर आया ही नही|इतने मशरूफ थे हम, चाहत मे तुम्हारीदुनिया ने कहाँ कि, नाम कमाया ही नही|महल

फासले !!मेरा घर तेरे घर से इतनी दूर भी तो नही हैफिर क्योंफासले इतने बढे की80 गज़ की गली पार होती नही हैकंही ऐसा तो नही तेरे को भी डर है कीगिरफ्तार इश्क़ में हेहम कंही आगे बंदी बन्ने का डरतो नही।© मनमोहन कसाना‪#‎इश्क़‬ में गिरफ्तारी का मज़ा

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हर किसी को चाहिये सुसंस्कृत नारी जो बस उसके के ही गीत गायेगी खुद के लक्षण हों चाहे शक्ति कपूर जैसे पर बीबी सपनों में, सीता जैसी आयेगीरूप लावण्य से भरी होनी चाहिये जवानी भी पूरी खरी होनी चाहिए सामने बोलना मंजूर ना होगा हरदम नौकरी भी करती हो तो छा जायेगीघर के काम में दक्षता होना तो लाजिमी है जो उसे दब

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