कौन जाने आग पानी कब तलक,
बेवफ़ा ढलती जवानी कब तलक।
आज खोलें चाहतों की सीपियाँ,
मोतियों की महरबानी कब तलक।
रौशनी के पर लगाकर तितलियां,
खोजती अपनी निशानी कब तलक
हाथ में खंजर उठाकर चल दिये,
इस तरह रश्में निभानी कब तलक।
टूट जाते हो खिलौनों की तरह,
अस्थि पिंजर हैं छुपानी कब तलक।
क़ैद से बागी परिंदे उड़ गए,
तुम बताओ महरबानी कब तलक।
बोल क्या बोले कयामत हो गई
बात की कीमत चुकानी कब तलक।
मानते हैं लोग पानी है लहू ,
प्यार की गंगा बहानी कब तलक।
सत्य कहने में बड़ी मजबूरियां,
तुम सहोगे आत्मग्लानी कब तलक।