रात भर से रुक रुक कर बारिश हो रही है - मुरझाई प्रकृति को मानों नए प्राण मिल गए हैं... वो बात अलग है कि दिल्ली जैसे महानगरों में तथा दूसरी जगहों पर भी - जहाँ आबादी बढ़ने के साथ साथ “घरों” की जगह “मल्टीस्टोरीड अपार्टमेंट्स” के रूप में कंकरीट के घने जंगलों ने ले ली है... बिल्डिंग्स कारखाने बनाने के लिए पेड़ों पर बिना सोचे समझे ही कुल्हाड़ी चलाई जा रही हैं... पहाड़ों की कटाई के कारण पहाड़ खिसके जा रहे हैं... ऐसे में बरसात में मिट्टी की सौंधी सुगन्ध अब केवल स्मृतिशेष रह गई है... कोयल की पंचम के संग सुर मिलाते पपीहे की पिहू पिहू अब आपको मेघ मल्हार नहीं सुना पाती... लेकिन फिर भी मृदंग की थाप के समान बादलों के गम्भीर गर्जन की लय पर पवन देव से मिल कर मतवाली हो चुकी बूँदों का मधुरिम गान, और इस सबको देख कर मस्त हुई दामिनी का मादक नृत्य – इतना ही काफ़ी है मन के प्यासे पपीहे की नीरवता को दूर भगा उसे आह्लादित करने के लिए... कोई पत्थरदिल ही होगा जिसके मन का बिरवा ऐसे शराबी मौसम में झूम न उठेगा... इसी बात पर प्रस्तुत हैं बरखा की बूँदों के रस में डूबी कुछ पंक्तियाँ...
कजरारी बरसात जो आई, मन का बिरवा नाच उठा |
बूँदों के संग सतरंगी सपनों में वह तो झूम उठा ||
सिहर सिहर पुरवैया चलती, धरती सारी लहराती |
वन में मोर मोरनी नाचें, कोयलिया गाना गाती ||
आसमान भी सात रंग की सुर संगम सुन झूम उठा |
बूँदों के संग सतरंगी सपनों में वह तो झूम उठा ||
आज मेघ पर चढ़ी जवानी, बौराया सा फिरता है |
किन्तु पपीहा तृप्त हुआ ना, ये कैसा पागलपन है ||
मस्त बिजुरिया की तड़पन को लख कर वह भी हूक उठा |
बूँदों के संग सतरंगी सपनों में वह तो झूम उठा ||
जिस पपिहे की प्यास बुझा पाया ना कोई भी बादल
अरी दामिनी, मधु की गागर से तू उसकी प्यास बुझा ||
घन की ताधिन धिन मृदंग पर पात पात है झूम उठा |
बूँदों के संग सतरंगी सपनों में वह तो झूम उठा ||