आज से ठीक 100 साल पहले। तारीख 11 नवंबर 1918। इतिहास में दर्ज वह तारीख है जब चार साल तक दुनिया को हिलाकर रख देने वाला
प्रथम विश्व युद्ध
आखिर थम चुका था। जब भारत में समुद्र यात्रा को भी अशुभ माना जाता था, उस वक्त कुछ हजार या 2-4 लाख नहीं, बल्कि 11 लाख
भारतीय सैनिक प्रथम विश्व युद्ध में हिस्सा ले रहे थे। इन सैनिकों ने समंदर पार दूसरे देशों में अपने शौर्य, पराक्रम और जांबाजी का लोहा मनवाया। चार साल तक चले प्रथम विश्व युद्ध में करीब 74 हजार भारतीय सैनिक शहीद हुए। करीब 70 हजार अन्य भारतीय जख्मी हुए। आज प्रथम विश्व युद्ध की समाप्ति की 100वीं सालगिरह पर दुनियाभर में उनकी शहादत को याद किया जा रहा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी प्रथम विश्व युद्ध के भारतीय शहीदों को याद किया है। आइए जानते हैं इन भारतीय सपूतों की वीरता की कहानी...
ब्रिटेन ने युद्ध में झोंक डाले भारतीय सैनिक 104 साल पहले भारतीयों के लिए समुद्र यात्रा को लेकर सकारात्मक माहौल नहीं था। सामाजिक मान्यताओं के कारण लोग समुद्र मार्ग से यात्रा करना अशुभ मानते थे। आज के इतिहास में जिस घटना को दुनिया प्रथम विश्व युद्ध कहती है, उसके लिए लाखों अविभाजित हिंदुस्तानी नागरिकों को जिन्हें युद्ध कौशल में प्रशिक्षित भी नहीं किया गया था, को बड़े समुद्री जहाजों के जरिए युद्ध में भाग लेने के लिए ईस्ट अफ्रीका, फ्रांस, मिस्र, पर्शिया जैसे देशों में भेज दिया गया। 11 नवंबर को दुनिया प्रथम विश्व युद्ध के समापन के तौर पर जानती है, जिसमें ब्रिटिश हुकूमत की जीत हुई थी।
प्रथम विश्व युद्ध: पढ़ें, भारतीयों के बहादुरी के 6 किस्से
1914 में शुरू हुए प्रथम विश्व युद्ध में अविभाजित हिंदुस्तान के हजारों सैनिकों ने हिस्सा लिया था। युद्ध समाप्ति के दिन को कॉमनवेल्थ देशों में इसे एक ऐतिहासिक दिन के तौर पर याद किया जाता है। इस युद्ध में भारतीय सैनिकों की भूमिका को पूरी दुनिया में सम्मान के साथ याद किया जाता है। आज ही के दिन यानी 11 नवंबर, 1918 को यह युद्ध समाप्त हुआ था। आइए इस मौके पर हम कुछ भारतीय सैनिकों के बहादुरी भरे किस्सों के बारे में जानते हैं जिनको विक्टोरिया क्रॉस से सम्मानित किया गया...
गब्बर सिंह नेगी का जन्म 21 अप्रैल, 1895 को उत्तराखंड के चम्बा में हुआ था। 1913 में वह गढ़वाल राइफल्स में भर्ती हुए थे। उसी दौरान पहला विश्व युद्ध छिड़ गया था जिसमें गढ़वाल राइफल्स के सैनिकों को फ्रांस भेजा गया।
बहादुरी के किस्से...
वह जिस रेजिमेंट में शामिल थे उसने मार्च, 1915 में न्यू शैपल के युद्ध में हिस्सा लिया। उस समय उनकी आयु मात्र 21 साल थी। 10 मार्च, 1915 को उनकी सैन्य टुकड़ी ने जर्मन सैनिकों के एक ठिकाने पर हमला किया। गब्बर सिंह नेगी अपनी टुकड़ी के साथ मुख्य खंदक में प्रवेश कर गए। उन्होंने दुश्मन को सरेंडर करने पर मजबूर कर दिया। अंत में उनकी भी मौत हो गई। बहादुरी के असाधारण कारनामे के लिए उनको विक्टोरिया क्रॉस से सम्मानित किया गया था। चम्बा में उनकी याद में हर साल गब्बर सिंह नेगी मेला लगता है जिस दौरान उनके स्मारक पर उनको श्रद्धांजलि अर्पित की जाती है।
(फोटो: साभार ट्विटर)
बदलू सिंह का जन्म पंजाब के ढकला में हुआ था। वह हिंदू जाट थे। वह भारतीय सेना की 29वीं लांसर्स रेजिमेंट में रिसालदार थे। प्रथम विश्व युद्ध के दौरान उनको पहले फ्रांस भेजा गया था लेकिन बाद में फिलिस्तीन भेजा गया। उनको मरणोपरांत विक्टोरिया क्रॉस से सम्मानित किया गया था।
बहादुरी का किस्सा...
23 सितंबर, 1918 को फिलिस्तीन की जॉर्डन नदी के किनारे उन्होंने जिस बहादुरी और बलिदान का परिचय दिया, वह बेमिसाल है। सुबह का समय था। उनके स्क्वॉड्रन ने जॉर्डन नदी के पश्चिम तट पर दुश्मन के एक मजबूत ठिकाने पर हमला किया। ठिकाने के करीब पहुंचने पर रिसालदार बदूल सिंह ने देखा कि बाईं ओर एक छोटी से पहाड़ी थी। उस पर दुश्मन के 200 सैनिक और मशीन गनें लगी थीं। वहां से उनके स्क्वॉड्रन पर जोरदार गोलीबारी हो रही थी जिससे उनके साथी काफी हताहत हो रहे थे। उन्होंने हिचके बगैर अपने छह अन्य साथियों को लिया और पहाड़ी पर कब्जा करने के लिए चल पड़े। उन्होंने पहाड़ी पर कब्जा कर लिया और बड़ी संख्या में अपने सैनिकों को मरने से बचा लिया। इस हमले में वह बुरी तरह घायल हो गए लेकिन उनके मरने से पहले दुश्मन की सभी मशीन गन और पैदल सैनिकों ने आत्मसमर्पण कर दिया।
(फोटो और टेक्स्ट: साभार GOV.UK)
छत्ता सिंह का जन्म 1886 में उत्तर प्रदेश के कानपुर में हुआ था। वह भारतीय सेना की भोपाल इन्फैंट्री में सिपाही थे। 13 जनवरी, 1916 को मेसोपोटामिया (मौजूदा इराक) में वाडी का युद्ध हुआ था। उस युद्ध में उन्होंने बेमिसाल बहादुरी का परिचय दिया था जिसके लिए उनको विक्टोरिया क्रॉस से सम्मानित किया गया।
बहादुरी का किस्सा...
युद्ध के दौरान उनके कमांडिंग ऑफिसर बुरी तरह घायल हो गए थे। वह खुले मैदान में बेसहारा पड़े हुए थे। जबर्दस्त गोलीबारी हो रही थी। उस बीच में अपनी जान बचानी मुश्किल थी लेकिन छत्ता सिंह ने कमांडिंग ऑफिसर को यूं ही नहीं छोड़ने का फैसला किया। गोलीबारी के बीच उन्होंने ऑफिसर के लिए खंदक खोदना शुरू किया। जब तक रात नहीं हो गई, उस पांच घंटे तक वह जख्मी ऑफिसर के साथ रहे। उन्होंने कमांडिंग ऑफिसर को बचाने के लिए अपना शरीर आगे कर दिया। जब अंधेरा हो गया तो वह ऑफिसर को सुरक्षित स्थान पर ले आए। 1961 में उनका निधन हो गया।
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उनका जन्म 4 मार्च, 1883 को गढ़वाल के करबारतीर गांव में हुआ था। गढ़वाल राइफल्स में वह नाईक थे। 23-24 नवंबर, 1914 को उनकी रेजिमेंट ने दुश्मन से फेस्टुबर्ट के करीब ब्रिटिश खदंकों पर फिर से कब्जा करने की कोशिश की। इस युद्ध के दौरान उनकी भूमिका के लिए उनको विक्टोरिया क्रॉस से सम्मानित किया गया।
उनकी बहादुरी के किस्से कुछ इस तरह से है...
23-24 नवंबर, 1914 की रात थी। नेगी की रेजिमेंट जर्मन सैनिकों के कब्जे से ब्रिटिश खंदकों को आजाद कराने के लिए आगे बढ़ी। दुश्मन की ओर से ताबड़तोड़ गोलियां दागी जा रही थीं। दो बार गोलियां उनके सिर और बाहों में आकर लगी। जोरदार गोलीबारी और गोलाबारी के बीच दरवान सिंह नेगी आगे बढ़े और जर्मन सैनिकों को खंदक से भागने पर मजबूर कर दिया। बाद में वह सूबेदार की रैंक पर सेना से सेवानिवृत्त हुए। 1950 में उनका निधन हो गया। लैंसडॉन, उत्तराखंड में गढ़वाल राइफल्स के रेजिमेंटल संग्रहालय का नाम, उनके सम्मान में रखा गया है।
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गोविंद सिंह का जन्म 7 दिसंबर, 1887 को राजस्थान के दामोई गांव में हुआ था। वह पहले विश्व युद्ध के दौरान दूसरे लांसर्स की घुड़सवार सेना में शामिल थे। 1 दिसंबर, 1917 को कम्बराई के युद्ध में उनके बहादुरी भरे कारनामे के लिए उनको विक्टोरिया क्रॉस से सम्मानित किया गया।
उनकी बहादुरी का किस्सा कुछ इस तरह से है...
युद्ध के दौरान उनकी रेजिमेंट दुश्मन से घिर जाती है। रेजिमेंट की पोजिशन बताने के लिए ब्रिगेड मुख्यालय संदेश भेजना जरूरी था। जोरदार गोलीबारी के बीच संदेश पहुंचाना मुश्किल काम था। इस स्थिति में गोविंद सिंह ने यह जिम्मेदारी निभाई। हर बार उनके घोड़े को दुश्मन निशाना बना लेते लेकिन वह हर बार पैदल ही जाकर संदेश छोड़ आते। युद्ध में गोविंद सिंह जिंदा बचे थे जिनका 1942 में निधन हो गया।
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लाला का जन्म 20 अप्रैल, 1876 को हिमाचल प्रदेश में हुआ था। वह भारतीय थल सेना के 41वें डोगरा में लांस नाईक थे। उन्होंने प्रथम विश्व युद्ध के दौरान अहम भूमिका निभाई थी। उन्होंने मेसोपोटामिया (मौजूदा इराक) में हन्ना के युद्ध में 21 जनवरी, 1916 को बहादुरी की मिसाल कायम की जिसके लिए उनको विक्टोरिया क्रॉस से सम्मानित किया गया। उनकी बहादुरी का किस्सा कुछ इस तरह से है...
उन्होंने एक ब्रिटिश ऑफिसर को दुश्मन के करीब जमीन पर बेसुध पाया। वह ऑफिसर दूसरी रेजिमेंट का था। लाला उस ऑफिसर को एक अस्थायी शरण में ले आए जिसे उन्होंने खुद बनाया था। उसमें वह पहले भी चार लोगों की मरहम-पट्टी कर चुके थे। जब उस अधिकारी के जख्म की मरहम-पट्टी कर दी तो उनको अपनी रेजिमेंट के एजुटेंट की आवाज सुनाई दी। एजुटेंट बुरी तरह जख्मी थे और जमीन पर पड़े थे। लांस नाईक लाला ने एजुटेंट को अकेले नहीं छोड़ने का फैसला किया। उन्होंने अपने पीठ पर लादकर एजुटेंट को ले जाना चाहा लेकिन एजुटेंट ने मना कर दिया। उसके बाद वह शेल्टर में आ गए और अपने कपड़े उतारकर जख्मी अधिकारी को गर्म रखने की कोशिश की और अंधेरा होने तक उसके साथ रहे। जब वह अधिकारी अपने शेल्टर में चला गया तो उन्होंने पहले वाले जख्मी अधिकारी को मुख्य खंदक में पहुंचाया। इसके बाद वह एक स्ट्रेचर लेकर गए और अपने एजुटेंट को वापस लाए। उन्होंने अपने अधिकारियों के लिए साहस और समर्पण की अनोखी मिसाल कायम की। लाला का 1927 में निधन हो गया और उनके अंतिम शब्द थे, 'हमने सच्चे दिल से लड़ा।'
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4 सालों तक चला दुनिया का सबसे विनाशकारी युद्ध28 जुलाई 1914 को शुरू हुआ प्रथम विश्व युद्ध 11 नवंबर 1918 तक चला। इस तरह यह 4 साल, 3 महीने और 2 हफ्ते तक चला। इसे अबतक का सबसे विनाशकारी युद्ध भी माना जाता है। प्रथम विश्व युद्ध में करीब 90 लाख सैनिकों और 70 लाख आम नागरिकों की मौत हुई थी। इसमें 30 से ज्यादा देशों ने हिस्सा लिया।
13 लाख भारतीयों ने युद्ध में लिया हिस्सा प्रथम विश्व युद्ध में भारत प्रत्यक्ष हिस्सेदार नहीं था, लेकिन अविभाजित भारत की इस युद्ध में भागीदारी जरूर थी। भारत से 13 लाख से अधिक आदमी और 1.7 लाख से अधिक जानवरों को युद्ध क्षेत्र में भेजा गया। इस युद्ध में 74,000 भारतीय सैनिक शहीद भी हुए और आज के रुपए की गणना में 20 बिलियन डॉलर से ज्यादा का धन भारत से युद्ध क्षेत्र में खर्च किया गया।
प्रशिक्षण के बिना ही सैनिक के तौर पर तैनात किया गया
इस युद्ध में भारत के लिहाज से सबसे अधिक चिंताजनक बात थी कि युद्ध के लिए भेजे गए बहुत से भारतीयों को जरूरी कौशल प्रशिक्षण भी नहीं दिया गया था। हालांकि, युद्ध में भेजी गई कुछ टुकड़ियां प्रशिक्षित थीं और उनकी साहसिक भागीदारी इतिहास में पूरे सम्मान के साथ याद की जाती हैं। मैसूर और जोधपुर लैंसर्स की टुकड़ियों ने जबरदस्त वीरता का परिचय दिया और हाईफा विजय के लिए इजरायल आज भी उनका आभार मानता है। पश्चिमी क्षेत्र में भारतीय सैनिकों की साहसिक भागीदारी को लेकर कोई दो राय नहीं है।
भारतीय टुकड़ी में कई धर्म-जाति के लोग थे अविभाजित भारत से जिस जत्थे को युद्ध के लिए भेजा गया था वह बहुआयामी था। उसमें कई जाति, अलग-अलग
भाषा बोलनेवाले शिक्षित, निरक्षर और अलग धार्मिक मान्यताओं वाले सैनिक थे। यही वजह रही कि भारतीय सैनिकों के लिखित दस्तावेज कम मिले। हालांकि, ब्रिटिश लाइब्रेरी में एक अनाम सैनिक का पत्र हाल ही में सार्वजनिक हुआ है, जिसमें सैनिक ने युद्ध की भयावहता की तुलना महाभारत के युद्ध से की। एक मुस्लिम सैनिक मौलवी सरदुद्दीन ने मुस्लिम सैनिकों के शव को धार्मिक तौर-तरीकों से दफन किए जाने की मांग भी पत्र में की है।
100 साल बाद दफनाए गए 2 भारतीय सैनिक
उत्तरी फ्रांस के लावंटी गांव में 100 साल बाद द्वितीय विश्व में भाग लेने वाले दो भारतीय सैनिकों के शव दफनाए गए थे। 2016 में एक नाले के चौड़ीकरण के दौरान दो अज्ञात भारतीय सैनिकों के शव मिले थे। ये शव उस क्षेत्र से 8 किलोमीटर दूर मिले, जहां प्रथम विश्व युद्ध के दौरान गबर सिंह नेगी 10 मार्च 1915 को शहीद हुए थे। गढ़वाल राइफल्स रेजिमेंट सेंटर के लैंड्सडाउन स्थित मुख्यालय में तैनात लेफ्टिनेंट कर्नल रितेश राय के अनुसार फ्रांस सरकार की ओर से दी गई जानकारी के मुताबिक उत्तर पश्चिम फ्रांस के एक भूखंड में खुदाई के दौरान मिले 4 सैनिकों के शवों में से 2 शव 39 गढ़वाल राइफल रेजिमेंट के जवानों के थे। उनके कन्धों से '39' बैज मिला था। खुदाई में 4 सैनिकों के अवशेष मिले थे। इनमें 1 जर्मन और 1 ब्रिटिश सैनिक का शव था। ले. कर्नल रितेश राय के अनुसार स्थानीय प्रशासन की जांच में पता चला कि भारतीय सैनिकों के कंधों पर मिले बैज में 39 अंकित है।
यह है '39' का मतलब
प्रथम विश्वयुद्ध के वक्त गढ़वाल राइफल्स 39 गढ़वाल राइफल्स के नाम से जानी जाती थी। युद्ध में गढ़वाली सैनिकों की वीरता से प्रभावित होकर तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने इसका नाम 39 रॉयल गढ़वाल राइफल्स कर दिया था। आजादी के बाद इसमें से रॉयल शब्द हटा दिया गया। प्रथम विश्व युद्ध में यह गढ़वाली जवानों का शौर्य ही था कि गढ़वाल राइफल्स को रॉयल के खिताब से नवाजा गया। फ्रांस में हुए युद्ध में नायक दरबान सिंह नेगी और राइफल मैन गबर सिंह को मरणोपरांत विक्टोरिया क्रॉस से सम्मानित किया गया, जबकि संग्राम सिंह नेगी को 'मिलिटरी क्रॉस अवार्ड' दिया गया।
गढ़वाल रेजिमेंट के 721 जवानों ने दी कुर्बानी
जहां तक प्रथम और द्वितीय विश्वयुद्धों का सवाल है, इन दोनों में गढ़वाल रेजिमेंट के जवानों ने अपनी कुर्बानी दी थी। प्रथम विश्वयुद्ध में 721 सैनिको ने प्राणों की आहुति दी ,वहीं द्वितीय विश्वयुद्ध में देश के नाम जिंदगी कुर्बान करने वाले सैनिकों की संख्या 349 बताई जाती है।
28 जुलाई, 1914 को शुरू हुआ प्रथम विश्व युद्ध 11 नवंबर, 1918 को समाप्त हुआ। यह मानव इतिहास के उन विनाशकारी युद्धों में एक था जिसने भारी पैमाने पर तबाही मचाई। युद्ध के अंत तक करीब 1.7 करोड़ लोग मारे गए जिनमें 1.1 करोड़ तो सिपाही थे और 60 लाख आम नागरिक मारे गए। 2 करोड़ के करीब लोग जख्मी हुए। वैसे तो इस युद्ध का कारण काफी जटिल था और किसी एक घटना को इसके लिए पूरी तौर पर जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है। एक साथ कई चीजें थीं जिसने युद्ध की पृष्ठभूमि तैयारी की। आज हम युद्ध के उन कारणों और युद्ध के परिणाम के बारे में जानेंगे...
प्रथम विश्व युद्ध के पांच मुख्य कारण था जिनको आप MAINA के नाम से पुकार सकते हैं। इस शब्द में M-Militarism, A-Alliance system, I-Imperialism, N-Nationalism और A-Assassination है। आइये कैसे इन पांच कारणों से युद्ध की चिंगारी भड़की जानते हैं...
20 सदी में यूरोप के देशों में खुद को अत्याधुनिक हथियार से लैस करने और अपनी सेना के आकार को बढ़ाने की होड़ मची। औद्योगिक क्रांति ने इसके लिए जमीन तैयार की जिसका उपयोग अत्याधुनिक हथियार बनाने के लिए हुआ। चूंकि औद्योगिक क्रांति के मामले में जर्मनी और ग्रेट ब्रिटेन सबसे आगे था इसलिए हथियारों की दौड़ में भी वे आगे निकल गए। दोनों देशों ने अपनी नौसेनाओं को भी काफी मजबूत किया। कुछ देश अपनी सेना और हथियारों के बल पर खुद को सबसे शक्तिशाली समझने लगे। उनको लगा कि अब उनको कोई हरा नहीं सकता। बाद में यह चीज भी देशों के बीच युद्ध का कारण बनी।
19वीं सदी में यूरोप के देशों ने एक-दूसरे की रक्षा के लिए आपस में संधियां कीं यानी अगर एक देश पर हमला हुआ तो उसका मित्र देश मदद करेगा। पहले विश्व युद्ध से पहले इन देशों के बीच संधियां थीं...
रूस और सर्बिया
जर्मनी और ऑस्ट्रिया-हंगरी
फ्रांस और रूस
ब्रिटेन, फ्रांस और बेल्जियम
जापान और ब्रिटेन
जब ऑस्ट्रिया हंगरी ने सर्बिया के खिलाफ युद्ध की घोषणा की तो सर्बिया की मदद के लिए रूस कूद पड़ा। रूस को टांग अड़ाते देखकर जर्मनी ने रूस के खिलाफ युद्ध की घोषणा कर दी। फिर जर्मनी और ऑस्ट्रिया-हंगरी के खिलाफ फ्रांस कूद पड़ा। जर्मनी ने फ्रांस पर हमला कर दिया। फिर जापान युद्ध में शामिल हो गया। बाद में इटली और संयुक्त राज्य अमेरिका भी कूद पड़ा। इस तरह से उस समय की महाशक्तियां दो गुटों में बंट गई। एक गुट धुरी राष्ट्र का था तो दूसरा मित्र राष्ट्र का। धुरी राष्ट्र में रूस, फ्रांस, ब्रिटेन, संयुक्त राष्ट्र अमेरिका और जापान थे तो धुरी राष्ट्र में सिर्फ तीन देश थे, ऑस्ट्रिया-हंगरी, जर्मनी और ओटोमन साम्राज्य
उन दिनों अफ्रीका और एशिया के कई भागों में कच्चा माल पर्याप्त रूप से उपलब्ध था जिस पर यूरोप के इन देशों की नजर थी। हथियारों और सेना बढ़ाने की होड़ के साथ-साथ इन देशों में अधिक से अधिक क्षेत्रों को अपने अधीन लाने की दौड़ भी शुरू हो गई। ज्यादा से ज्यादा हिस्सों पर अपना कब्जा जमाने के लिए इन देशों का आपस में ही टकराव हुआ जिसने पहले विश्व युद्ध की जमीन तैयार की।
19वीं सदी में यूरोप के देशों में राष्ट्रवाद की अवधारणा ने भी जन्म लिया। इसी राष्ट्रवाद ने बोस्निया और हर्जेगोविना के लोगों को ऑस्ट्रिया-हंगरी के खिलाफ उकसाया। पहले बोस्निया और हर्जेगोविना स्वतंत्र राष्ट्र था जिस पर ऑस्ट्रिया हंगरी का कब्जा हो गया था। बोस्निया के लोग चाहते थे कि वे सर्बिया का हिस्सा रहें यानी वे खुद को सर्बियाई राष्ट्र का हिस्सा मानते थे। इस तरह राष्ट्रवाद ने युद्ध में प्रत्यक्ष भूमिका निभाई।
प्रथम विश्व युद्ध का तात्कालिक कारण ऑस्ट्रिया-हंगरी के आर्कड्युक फ्रैंज फर्डिनेंड की हत्या थी। 28 जून, 1914 को जब फर्डिनेंड और उनकी पत्नी सराजेवो, बोस्निया गए तो सर्बियाई राष्ट्रवादी गैवरिलो प्रिंसिप ने उनकी हत्या कर दी। चूंकि फर्डिनेंड और उनकी पत्नी का कातिल सर्बियाई मूल का था तो ऑस्ट्रिया ने इसके लिए सर्बिया को जिम्मेदार माना और इस घटना के एक महीने बाद 28 जुलाई, 1914 को उसके खिलाफ युद्ध की घोषणा कर दी। जब सर्बिया के बचाव में रूस उतरने की तैयारी कर रहा था तो जर्मनी ने रूस के खिलाफ युद्ध की घोषणा कर दी। धीरे-धीरे कई और देश इसमें शामिल हो गए।
जब यह युद्ध आरम्भ हुआ था उस समय भारत औपनिवेशिक शासन के अधीन था। इस युद्ध के दौरान भारतीय सिपाही पूरी दुनिया में अलग-अलग लड़ाइयों में लड़े। भारत ने युद्ध के प्रयासों में जनशक्ति और सामग्री दोनों रूप से भरपूर योगदान किया। भारत के सिपाही फ्रांस और बेल्जियम, अदन की खाड़ी, अरब, पूर्वी अफ्रीका, गाली पोली, मिस्र ,मेसोपेाटामिया, फिलिस्तीन,पर्सिया और सालोनिका में बल्कि पूरे विश्व में विभिन्न लड़ाई के मैदानों में बड़े सम्मान के साथ लड़े। गढ़वाल राईफल्स रेजिमेन के दो सिपाहियो को संयुक्त राज्य का उच्चतम पदक विक्टोरिया क्रॉस भी मिला था।
हालांकि प्रथम युद्ध का परिणाम काफी विनाशकारी रहा लेकिन औषधि, युद्ध कौशल और राजनीति में इसने कुछ योगदान भी दिया।
प्रथम विश्व युद्ध में नई-नई टेक्नॉलजी का इस्तेमाल हुआ। युद्ध में विमानों, पनडुब्बियों और टैंकों ने अहम भूमिका निभाई। औद्योगिक क्रांति के कारण बड़े पैमाने पर हथियारों का उत्पादन शुरू हुआ। 1915 में जर्मनी ने जहरीली गैस का इस्तेमाल करके रासायनिक हथियारों के प्रयोग की शुरुआत की।
आधुनिक सर्जरी का जन्म भी पहले विश्व युद्ध के दौरान ही हुआ। बड़े पैमाने पर घायल हुए सैनिकों की सर्जरी की गई। ब्लड बैंक भी उसी समय खुलने शुरू हुए जब 1914 में यह खोज हुई की खून को जमने से रोका जा सकता है।
पहले विश्व युद्ध के बाद यूरोप का नक्शा पूरी तरह बदल गया। जर्मन, रूस, तुर्क और ऑस्टियाई साम्राज्य का पतन हो गया। वहीं चार नए साम्राज्य चेकोस्लोवाकिया, यूगोस्लाविया एवं अन्यों का जन्म हुआ।
लोकतंत्र और राष्ट्रवाद का फैलना पहले विश्व युद्ध का अन्य अहम असर था। यूरोप, एशिया और अफ्रीका के देशों में राष्ट्रवादी आंदोलन मजबूत हुए। नए उभरते देशों में लोकतांत्रिक शासन की स्थापना हुई।
ब्रिटिश पीएम और महारानी ने भी याद की भारतीयों की कुर्बानी1914 में शुरू हुए प्रथम विश्व युद्ध में अविभाजित हिंदुस्तान के हजारों सैनिकों ने हिस्सा लिया था। युद्ध समाप्ति के दिन को कॉमनवेल्थ देशों में इसे एक ऐतिहासिक दिन के तौर पर याद किया जाता है। इस युद्ध में भारतीय सैनिकों की भूमिका को पूरी दुनिया में सम्मान के साथ याद किया जाता है। रविवार को ब्रिटेन की महारानी एलिजाबेथ द्वितीय ने प्रथम विश्व युद्ध के शहीदों को याद किया। पिछले सप्ताह ब्रिटेन की संसद में प्रधानमंत्री टरीजा मे ने भी भारतीय सैनिकों को याद किया। उन्होंने कहा, 'हम इस युद्ध विजय में उन 74,000 सैनिकों को नहीं भूल सकते जो अविभाजित भारत के नागरिक थे। उन सैनिकों ने संघर्ष किया और अपनी जान गंवाई, इनमें से 11 को उनके अदम्य साहस के लिए विक्टोरिया क्रॉस से भी सम्मानित किया गया।'