माँ दुर्गा की उपासना के लिए पूजन सामग्री
साम्वत्सरिक
नवरात्र आरम्भ हो चुके हैं | इस अवसर पर नौ दिनों तक माँ भगवती के नौ रूपों की
पूजा अर्चना की जाती है | कुछ मित्रों ने आग्रह किया था कि माँ दुर्गा की उपासना
में जिन वस्तुओं का मुख्य रूप से प्रयोग होता है उनके विषय में कुछ लिखें | तो, सबसे पहले तो बताना
चाहेंगे कि हम एक छोटी सी अध्येता हैं... इतने ज्ञानी हम नहीं हैं कि इस प्रकार की
चर्चाएँ कर सकें... किन्तु मित्रों के आग्रह को टाला भी नहीं जा सकता... इसलिए जो
भी कुछ अल्पज्ञान हमें है उसी के आधार पर कुछ लिखने का प्रयास हम कर रहे हैं...
नवरात्रों के पावन नौ दिनों
में दुर्गा माँ के नौ स्वरूपों की पूजा उपासना बड़े उत्साह के साथ की जाती है –
चाहे चैत्र नवरात्र हों अथवा शारदीय नवरात्र | माँ भगवती को प्रसन्न करने के लिए
और उनका आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए कुछ विशेष सामग्रियों से उनकी पूजा की जाती
है | यद्यपि माँ क्योंकि एक माँ हैं तो जैसा कि हमने कल भी अपने लेख में लिखा था, साधारण रीति से की गई ईशोपासना भी उतनी ही सार्थक होती
है जितनी कि बहुत अधिक सामग्री आदि के द्वारा की गई पूजा अर्चना | साथ ही जिसकी
जैसी सुविधा हो, जितना समय उपलब्ध हो, जितनी सामर्थ्य हो उसी के
अनुसार हर किसी को माँ भगवती अथवा किसी भी देवी देवता की पूजा अर्चना उपासना करनी
चाहिए... वास्तविक बात तो भावना की है... भावना के साथ यदि अपने पलंग पर बैठकर भी
ईश्वर की उपासना कर ली गई तो वही सार्थक हो जाएगी... तथापि,
पारम्परिक रूप से जो सामग्रियाँ माँ भगवती की उपासना में प्रमुखता से प्रयुक्त
होती हैं उनका अपना प्रतीकात्मक महत्त्व होता है तथा प्रत्येक सामग्री में कोई
विशिष्ट सन्देश अथवा उद्देश्य निहित होता है...
सर्वप्रथम बात करते हैं कलश,
आम्रपत्र और जौ की | यद्यपि इस विषय में एक लेख पहले भी प्रस्तुत कर चुके हैं |
किन्तु आज के सन्दर्भ में, पुराणों में कलश को सुख-समृद्धि, ऐश्वर्य और मंगल
कामनाओं का प्रतीक माना गया है | मान्यता है कि कलश में सभी ग्रह, नक्षत्रों एवं तीर्थों का निवास होता है | घट स्थापना करते समय जो मन्त्र बोले जाते हैं
उनका संक्षेप में अभिप्राय यही है कि घट में समस्त ज्ञान विज्ञान का, समस्त ऐश्वर्य का तथा समस्त
ब्रह्माण्डों का समन्वित स्वरूप विद्यमान है | किसी भी अनुष्ठान के समय घट स्थापना
के द्वारा ब्रह्माण्ड में उपस्थित शक्तियों का आह्वाहन करके उन्हें जागृत किया
जाता है ताकि साधक को अपनी साधना में सिद्धि प्राप्त हो और उसकी मनोकामनाएँ पूर्ण
हों | साथ ही घट स्वयं में पूर्ण है | सागर का जल घट में डालें या घट को सागर में
डालें – हर स्थिति में वह पूर्ण ही होता है तथा ईशोपनिषद की पूर्णता की धारणा का
अनुमोदन करता प्रतीत होता है “पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते” | इसी भावना
को जीवित रखने के लिए किसी भी धार्मिक अनुष्ठान के समय घट स्थापना का विधान
सम्भवतः रहा होगा | नवरात्रों में भी इसी प्रकार घट स्थापना का विधान है | इसके अतिरिक्त ब्रह्मा, विष्णु, रूद्र,
सभी नदियों-सागरों-सरोवरों के जल, एवं समस्त देवी-देवता कलश
में विराजते हैं | वास्तु शास्त्र के अनुसार ईशान कोण अर्थात उत्तर-पूर्व का कोण जल
एवं ईश्वर का स्थान माना गया है और यहाँ सर्वाधिक सकारात्मक ऊर्जा रहती है | इसलिए
पूजा करते समय देवी की प्रतिमा तथा कलश की स्थापना इसी दिशा में की जाती है |
आम्रपत्र तथा आम की टहनी और
हवन के लिए आम की लकड़ी समिधा के रूप में प्रयोग की जाती है | माना जाता है कि आम के पत्ते वायु व जल में उपस्थित अनेक हानिकारक कीटाणुओं को नष्ट करने की
सामर्थ्य रखते हैं | साथ ही आम के पत्तों से सकारात्मक ऊर्जा का संचार माना जाता
है | बाहर से प्रवाहित होने वाली वायु भी आम के पल्लवों का स्पर्श करके
स्वास्थ्यवर्धक हो जाती है | आम के वृक्ष पर प्रायः कीड़े नहीं लगते | इसकी सुगन्ध
बहुत मनमोहक होती है – इतनी कि इसके पत्तों की सुगन्ध से देवी देवता भी प्रसन्न
होते हैं | द्वार पर आम्रपल्लव की वन्दनवार लगाने से समस्त माँगलिक कार्य
निर्विघ्न सम्पन्न होते हैं | इन्हीं समस्त कारणों से घट स्थापना करते समय आम्र
पत्र प्रयोग में लाए जाते हैं |
घट स्थापना के साथ ही जौ की
खेती भी शुभ मानी जाती है | किन्हीं
परिवारों में केवल आश्विन नवरात्रों में जौ बोए जाते हैं तो कहीं कहीं आश्विन और
चैत्र दोनों नवरात्रों में जौ बोने की प्रथा है | इन नौ दिनों में जौ बढ़ जाते हैं
और उनमें से अँकुर फूट कर उनके नौरते बन जाते हैं जिनके द्वारा विसर्जन के दिन
देवी की पूजा की जाती है | इसका एक पौधा चार पाँच महीने तक हरा भरा रहता है | सम्भवतः इसीलिए यव को समृद्धि, शान्ति और उन्नति और का प्रतीक माना जाता है | ऐसी भी मान्यता
है कि जौ उगने की गुणवत्ता से भविष्य में होने वाली घटनाओं का पूर्वानुमान लगाया
जा सकता है | माना जाता है कि यदि जौ शीघ्रता से बढ़ते हैं तो घर में सुख-समृद्धि
आती है वहीं अगर ये बढ़ते नहीं अथवा मुरझाए हुए रहते हैं तो भविष्य में किसी तरह के
अनिष्ट का संकेत देते हैं | आश्विन-कार्तिक में इसकी बुआई होती है और चैत्र-वैशाख
में कटाई | यह भी एक कारण दोनों नवरात्रों में जौ की खेती का हो सकता है | ऐसी भी मान्यता है कि सृष्टि के आरम्भ में सबसे
पहली फसल जो उपलब्ध हुई वह जौ की फसल थी | इसीलिए इसे पूर्ण फसल भी कहा जाता है |
यज्ञ आदि के समय देवी देवताओं को जौ अर्पित किये जाते हैं | एक कारण यह भी प्रतीत
होता है कि अन्न को ब्रह्म कहा गया है और उस अन्न रूपी ब्रह्म का सम्मान करने के
उद्देश्य से भी सम्भवतः इस परम्परा का आरम्भ हो सकता है |