ॐ गं गणपतये नमः
हिन्दू धर्म में कोई भी मंगल कार्य करते समय सर्वप्रथम गणपति का आह्वाहन स्थापन करते हैं | ऐसी मान्यता है कि यदि पूर्ण एकाग्रचित्त से संकल्प युक्त होकर गणपति की पूजा अर्चना की जाए तो उसके बहुत शुभ फल प्राप्त होते हैं | प्रायः सभी Vedic Astrologer बहुत सी समस्याओं के समाधान के लिए पार्वतीसुत श्री गणेश की उपासना का विधान बताते हैं | आज भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी – गणेशोत्सव का दशदिवसीय पर्व आरम्भ हो रहा है जो 19 सितम्बर यानी भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी – अनन्त चतुर्दशी - को प्रतिमा विसर्जन के साथ सम्पन्न होगा... सर्वप्रथम सभी को गणेश चतुर्थी की अनेकशः हार्दिक शुभकामनाएँ...
पिछले कुछ दिनों से सोशल मीडिया पर प्रतिमा विसर्जन के विरोध में अनेक लेख पढ़ने को मिल रहे हैं | हमारे कुछ मित्रों ने भी हमसे इस विषय में बात की कि प्रतिमा विसर्जन हिन्दू मान्यता में अशुभ मानी जाती है तो फिर गणपति और माँ भगवती की प्रतिमाओं का विसर्जन क्यों किया जाता है | वास्तव में देखा जाए तो वैदिक मान्यताओं में प्रतिमा विसर्जन का उल्लेख नहीं प्राप्त होता | तो इस विषय में तो तार्किक विद्वज्जन ही कोई उत्तर दे सकते हैं | हमें जितना समझ आया है वो हम यहाँ लिख रहे हैं |
सर्वप्रथम तो एक पौराणिक कथा का यहाँ उल्लेख करेंगे | पौराणिक मान्यताओं के अनुसार श्री वेद व्यास जी ने गणेश चतुर्थी से गणेश जी को महाभारत की कथा सुनाना आरम्भ किया था | व्यास जी कथा सुना रहे थे और भगवान गणेश उसे लिपिबद्ध करते जा रहे थे | दस दिनों तक नेत्र बन्द करके वेदव्यास जी कथा सुनाते रहे और गणेश जी लिखते चले गए | लेकिन जब दस दिनों के बाद वेद व्यास जी ने अपने नेत्र खोले तो देखा कि गणपति जी के शरीर का तापमान बहुत अधिक बढ़ा हुआ था | ऐसा सम्भवतः थकान के कारण हुआ होगा | उस समय वेदव्यास जी को और तो कुछ समझ आया नहीं, उन्होंने गणेश जी को उठाकर जल में डूबा दिया तब उनके शरीर का ताप कम हुआ | जैसा कि आजकल भी ठण्डे पानी की पट्टी आदि रखने की सलाह ज्वर पीड़ित के लिए दी जाती है | मान्यता है कि तभी से इसी घटना की स्मृति में गणेश चतुर्थी से दश दिनों तक गणपति की पूजा अर्चना करके दसवें दिन गणपति की प्रतिमा को जल में विसर्जित किया जाता है | भगवान गणेश को जल का अधिपति भी माना जाता है सम्भवतः इसलिए भी प्रतिमा को जल में विसर्जित किया जाता होगा |
शारदीय नवरात्रों के बाद दुर्गा प्रतिमा विसर्जन – जो कि मूल रूप से बंगाल की परम्परा है – उसके पीछे भी कुछ सामाजिक कारण ही दृष्टिगत होते हैं | भारत एक कृषि प्रधान देश रहा है | तो वर्षा ऋतु के बाद सितम्बर अक्तूबर अर्थात आश्विन माह में जब फसल पककर तैयार हो जाती है तब खेतिहर लोग अपने घरों की साफ़ सफाई करके फसल को अपने गोदामों में
सुरक्षित कर लेते हैं | वर्ष भर के कठोर परिश्रम के बाद अब उन्हें कुछ समय का अवकाश प्राप्त होता है | ऐसे में महिलाएँ प्रायः अपने माता पिता के घर चली जाती हैं और वहाँ से उन्हें उपहार आदि देकर आदर सम्मान के साथ विदा किया जाता है | माना जाता है कि इसी प्रकार माँ भगवती भी अपनी सखियों लक्ष्मी और सरस्वती तथा सन्तानों कार्तिक और गणेश के साथ कुछ समय के लिए अपने मायके अर्थात पृथिवी पर आ जाती हैं और कुछ दिन यहाँ विश्राम करके पुनः अपने पति भगवान शंकर के पास चली जाती हैं | जब वे वापस जाती हैं तब उन्हें भी पृथिवीवासी अनेक प्रकार के उपहारों के साथ विदा करते
हैं | भगवती की प्रतिमा को जल में विसर्जित करने के पीछे यही भाव है कि वे नौका में बैठकर भगवान शंकर के पास वापस जा रही हैं |
किन्तु यदि इसका आध्यात्मिक पक्ष देखें तो कहीं भी इस प्रक्रिया में कुछ भी नीति विरुद्ध नहीं प्रतीत होता | हिन्दू मान्यता में जल को ब्रह्म माना गया | सृष्टि की उत्पत्ति से पूर्व भी चारों ओर जल ही जल था और सृष्टि के अन्त में भी जल ही रहेगा ऐसी भी
पौराणिक मान्यताएँ हैं | अर्थात आदि, मध्य और अन्त सब जल ही होने के कारण उसे शाश्वत तत्व माना गया है तथा उसी में
त्रिदेवों का वास माना गया है | और इसी कारण से किसी भी पूजा अर्चना के समय पवित्रीकरण में जल का ही प्रयोग किया जाता है | सम्भव है यह भी एक कारण हो कि कुछ स्थानों पर प्रतिमा विसर्जन की प्रथा है क्योंकि प्रतिमा विसर्जित करने से एक ओर तो जल के जीव जन्तुओं को भोजन उपलब्ध हो जाता है वहीं दूसरी ओर जल में त्रिदेवों का वास होने के कारण मूर्ति से प्राण निकलकर सीधे ब्रह्म में लीन हो जाते हैं |
कुछ लोगों को यह भी द्विविधा है कि यदि गणेश और दुर्गा की मूर्तियों का विसर्जन किया जाता है तो राम कृष्ण की मूर्तियों का विसर्जन क्यों नहीं किया जाता | तो उनके लिए हम बस यही कहना चाहेंगे कि प्रतिमा विसर्जन प्रान्त विशेष की प्रथाएँ हैं – गणपति विसर्जन मूलतः महाराष्ट्र की प्रथा है – जिसका आरम्भ श्री बाल गंगाधर तिलक ने किया था | छत्रपति शिवाजी के
समय यह उत्सव उनके पारिवारिक उत्सव के रूप में मनाया जाता था क्योंकि भगवान गणेश उनके कुलदेवता माने गए हैं | बाद में जब अंग्रेजों ने क्रूरतापूर्ण व्यवहार आरम्भ कर दिया उस समय ब्राह्मण और ब्राह्मणेतर समुदायों को एक साथ लाने के उद्देश्य से श्री बाल गंगाधर तिलक जी ने इसे राष्ट्रीय पर्व के रूप में मनाना आरम्भ किया और तभी से इसमें प्रतिमा विसर्जन भी आरम्भ हुआ | दुर्गा विसर्जन बंगाल की प्रथा है | हमें कोई अधिकार नहीं उनकी धार्मिक आस्थाओं पर प्रश्न चिह्न लगाने का – वह भी तब जब ये प्रथाएँ किसी न किसी रूप में तर्क संगत भी हैं | कुछ लोग कुतर्क करते हैं कि यदि ये दोनों प्रथाएँ उचित हैं तो फिर तो भगवान राम और कृष्ण की प्रतिमाओं का विसर्जन भी किया जाना चाहिए | तो यहाँ सबसे महत्त्वपूर्ण तो यही है कि भगवान राम और कृष्ण युगपुरुष माने जाते हैं – भगवान राम को मर्यादा पुरुषोत्तम और भगवान श्री कृष्ण को युग पुरुष के रूप में सम्मान दिया जाता है और इस प्रकार ये दोनों ही हमारे इतिहास पुरुष हैं | भारत का सबसे प्राचीन उपलब्ध इतिहास राम और कृष्ण का ही है |
साथ ही एक बात और, किसी भी अनुष्ठान के समय – चाहे माँ भगवती की उपासना का अनुष्ठान अथवा गणेशोत्सव का अनुष्ठान हो या अन्य भी किसी प्रकार अनुष्ठान हो – उसके सम्पन्न होने पर सभी देवी देवताओं को “यानि कानि च पापानि
जन्मान्तरकृतानि च | तानि तानि प्रणश्यन्ति प्रदक्षिणा पदे पदे ||” मन्त्र से उनकी प्रदक्षिणा और क्षमा याचना करते हुए “ॐ स्वस्ति न: इन्द्रो वृद्धश्रवा: स्वस्ति न: पूषा विश्ववेदा: | स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमि: स्वस्ति नौ बृहस्पतिर्दधातु ||” मन्त्र से स्वस्ति वाचन करते हुए “यान्तु देवगणा: सर्वे पूजामादाय मामकीयम् | इष्टकामसमृद्ध्यर्थं पुनरागमनाय च ||” मन्त्र के साथ सम्मानपूर्वक विदा किया जाता है पुनः आगमन की प्रार्थना के साथ | ऐसा इसलिए भी किया जाता है कि जिन देवताओं को
हमने ससम्मान आमन्त्रित किया, उनकी स्थापना पूजा अर्चना की, अब वे अपने अपने निवास को प्रस्थान करें और सृष्टि के कल्याणार्थ अपने समस्त कर्मों में जुट जाएँ | यदि हमने उन्हें बाँध कर रखा तो निश्चित रूप से उनके प्रति स्वस्थ आचरण नहीं होगा | साथ ही, ये समस्त कार्य अनुष्ठानों के सम्पन्न होने पर किये जाते हैं | अनुष्ठान या तो किसी कामना की पूर्ति के लिए किये जाते हैं अथवा किसी विशेष पर्व के अन्तर्गत | अनुष्ठान में भगवान श्री गणेश और माँ भगवती को एक विशिष्ट अतिथि के रूप में आमन्त्रित किया जाता है | जब भी किसी अतिथि को अपने निवास पर आमन्त्रित करते हैं तो उसे कुछ उपहार आदि भेंट करके विदा करने की प्रथा सर्व विदित है | अतः इन देवताओं को भी इसी प्रकार विदा किया जाता है | विदा करने अर्थ यह नहीं हो गया कि ईश्वर हमारे साथ रहेंगे ही नहीं | बल्कि पूरे वर्ष भर के लिए आशीर्वाद देकर गए हैं इसलिए अब अगले वर्ष उन्हें कष्ट देंगे कि वे जन साधारण के कल्याण के लिए पुनः पृथिवी पर आएँ | भावनात्मक स्तर पर सभी देवी देवता जन साधारण के साथ ही रहते हैं | पञ्चतत्वों में जल क्योंकि अत्यन्त पवित्र मानकर उसे पवित्रीकरण के संकल्प के रूप में प्रयोग
करते हैं अतः उसी पवित्र जल के मार्ग से भगवान श्री गणेश और माँ भगवती को भी विदा करने की प्रथा यदि कुछ प्रान्तों में है तो उस पर विवाद किसलिए ?
भगवान श्री राम और श्री कृष्ण को पुरुषों में सर्वाधिक श्रेष्ठ पुरुष स्वीकार किया गया है जिनका अवतरण ही मानव रूप में अधर्म के नाश और धर्म की स्थापना के लिए हुआ था | जिन्हें धर्म की रक्षार्थ अनेक प्रकार के मानवीय कर्म करने की आवश्यकता पड़ी और अनेक प्रकार की भावनाओं की आवश्यकता पड़ी | यही कारण था कि रावण वध के पूर्व शक्ति प्राप्त करने के लिए भगवान श्री राम ने स्वयं भगवती की उपासना की थी | कहने का अभिप्राय यही है कि भगवान विष्णु के अवतारों के इतर जितने भी देवी देवता हैं वे पञ्च तत्वों से निर्मित स्थूल शरीर के रूप में पृथिवी पर अवतरित नहीं हुए | अतः किसी भी तर्क वितर्क की आवाश्यकता ही नहीं है |
अस्तु, किसी भी वाद विवाद में न पड़ते हुए, आज से विघ्नविनाशक भगवान श्री गणेश की पूजा अर्चना आरम्भ की गई है, इसी निमित्त प्रस्तुत है “श्री गणपति द्वादशनामस्तोत्रम्”...
यहाँ हम इस स्तोत्र के दो रूप प्रस्तुत कर रहे हैं | दोनों का ही भाव यही है कि जो भी व्यक्ति श्रद्धाभक्ति पूर्वक इनका ध्यान करता है वह चारों पुरुषार्थों का पालन करते हुए समस्त पापों से मुक्त होकर सुख प्राप्त करता है... साधक अपनी सुविधानुसार किसी भी स्तोत्र का पठन अथवा श्रवण कर सकता है...
|| अथ श्री गणपति द्वादश नाम स्तोत्रम् ||
सुमुखश्चैकदन्तश्च कपिलो गजकर्णकः |
लम्बोदरश्च विकटो विघ्ननाशो विनायकः ||
धूम्रकेतुर्गणाध्यक्षो भालचन्द्रो गजाननः |
द्वादशैतानि नामानि यः पठेच्छृणुयादपि ||
विद्यारम्भे विवाहे च प्रवेशे निर्गमे तथा |
संग्रामे संकटे चैव विघ्नस्तस्य न जायते ||
सुन्दर मुख वाले, एकदन्त, कपिल, गजकर्णक, लम्बोदर, विकट, विघ्ननाश, विनायक, धूम्रकेतु, गणाध्यक्ष, भालचन्द्र और गजानन – गणपति के इन बारह नामों का विद्यारम्भकाल में, विवाह के समय, प्रवेश के समय, प्रस्थान के समय, संग्राम के समय अथवा संकट के समय जो व्यक्ति पठन अथवा श्रवण करता है उसके समक्ष कभी किसी प्रकार का विघ्न नहीं उपस्थित
होता |
|| अथ श्री गणेशस्तोत्रम् ||
नारद उवाच
प्रणम्य शिरसा देवं गौरीपुत्रं विनायकम् |
भक्तावासं स्मरेन्नित्यमायुःकामार्थसिद्धये ||
प्रथमं वक्रतुण्डं च एकदन्तं दि्वतीयकम् |
तृतीयं कृष्णपिंगाक्षं गजवक्त्रं चतुर्थकम् ||
लम्बोदरं पंचमं च षष्ठं विकटमेव च |
सप्तमं विघ्नराजं च धूम्रवर्णं तथाष्टमम् ||
नवमं भालचन्द्रं च दशमं तु विनायकम् |
एकादशं गणपतिं द्वादशं तु गजाननम् ||
द्वादशैतानि नामानि त्रिसन्ध्यं यः पठेन्नरः |
न च विघ्नभयं तस्य सर्वसिद्धिकरं प्रभो ||
विद्यार्थी लभते विद्यां धनार्थी लभते धनम् |
पुत्रार्थी लभते पुत्रान् मोक्षार्थी लभते गतिम् ||
जपेद् गणपतिस्तोत्रं षड्भिर्मासैः फलं लभेत् |
संवत्सरेण च संसिद्धिं लभते नात्र संशयः ||
अष्टभ्यो ब्राह्मणेभ्यश्च लिखित्वा यः समर्पयेत् |
तस्य विद्या भवेत् सर्वा गणेशस्य प्रसादतः ||
|| इतिश्रीनारदपुराणे संकटनाशननाम गणेशद्वादशनामस्तोत्रं सम्पूर्णम् ||
वक्रतुण्ड, एकदन्त, कृष्णपिंगाक्ष, गजवक्त्रं, लम्बोदर, विकट, विघ्नराज, धूम्रवर्ण, भालचन्द्र, विनायक, गणपति और गजानन – भगवान् गणेश के इन बाराह नामों का जो व्यक्ति श्रद्धापूर्वक पठन और श्रवण करता है उसकी समस्त कामनाएँ पूर्ण होती हैं | इस प्रकार प्रायः इन दो प्रकार से गणपति के द्वादश नामों का पाठ किया जाता है | शिव-पार्वती सुत गणेश सभी का मंगल करें, यही कामना है...