नदी मेरी प्यारी
सखी
घूम रही थी नदी किनारे / पथरीले पथ पर
साथ साथ अपनी प्यारी सखी के...
नीचे देखा / नदी में तैर गया मेरा चेहरा /
अनायास ही
मन हुआ प्रफुल्लित देखकर...
हर दिशा हो रही थी रक्ताभ / भोर की अरुणिम
किरणों से
नदी ले आई थी नीचे अम्बर को / बाँधकर अपने
मोहजाल में
मानों बना रहा हो चित्र कोई तूलिका से
अपनी...
कभी आत्मविश्वास से भरपूर नायिका सी
बढ़ी जा रही जो अपने मग पर एकाकी...
तो कभी कहीं ठहरी हुई
मानों हो कोई तपस्विनी / एकाग्र भाव से
लीन / तपस्या में...
कभी अपने प्रियतम में हो जाने को एकाकार
चली जा रही आतुर भाव से / तोड़ कर सब बन्ध...
कभी भगवान भास्कर / बिखरा देते धूप के धवल
हिमकण
मानों सजा दिया हो रात के लिए / चाँद की
दुलहिन को
रजत अभ्रक के कणों से...
तो कभी फेंक देता कोई उड़ता पंछी / नन्ही
सी कांकर चोंच में भर अपनी
तो नदी के नयनों में नाच उठती / पूनम के
चाँद की परछाईं
किसी यौवन दर्पित नायिका की नाईं...
तो कभी मावस की काली रात में
दर्पण में अपना मुखड़ा निहारने में असफल
सुन्दरी सी...
कभी मस्त पवन के झोंकों से आनन्दित हो
नाच उठती मस्ती में भर...
तो कभी कल कल छल छल का सितार बजाती
सजाती नृत्य संगीत की सांझ
जिसमें होता नृत्य रुपहली सकुचाई चाँदनी
का...
कभी जेठ के ताप से प्राप्त कर ऊष्मा
तप्त होती जेठ के अनुराग में...
तो कभी शीत की पीत भोर में / शान्ति से
प्रवाहित होती
मानों रात की कामक्रीड़ा की चिह्न मिटाकर
थककर सो जाना चाहती हो कुछ पल को...
ऐसी अपनी प्यारी सखी से मिलकर
कौंध जाते मन में कुछ भूले बिसरे स्मृति
चिह्न
और तब सोचती / यही तो है नियम समस्त
प्रकृति का
प्रकृति / जो है स्वयं नारीरूपा...
तभी तो नदिया भी करती है / मेरे मन के
भावों को ही प्रतिबिम्बित
और इसीलिए तो है वो मेरी प्यारी सखी...