नमोऽस्तु
गुरुसत्तायै
मातृवत्
लालयित्री च, पितृवत् मार्गदर्शिका,
नमोऽस्तु
गुरुसत्तायै, श्रद्धाप्रज्ञायुता च या ||
वास्तव
में ऐसी श्रद्धा और प्रज्ञा से युत होती है गुरु की सत्ता – गुरु की प्रकृति – जो
माता के समान ममत्व का भाव रखती है तो पिता के समान उचित मार्गदर्शन भी करती है… और
सच पूछिये तो मित्र के समान हर सुख दुःख में आपका साथ भी देती है... गुरु अपने
ज्ञान रूपी अमृत जल से शिष्य के व्यक्तित्व की नींव को सींच कर उसे दृढ़ता प्रदान
करता है तथा उसका रक्षण और विकास करता है… गुरु
शिष्य को ज्ञान और प्रकाश का मार्ग दिखाता है… किन्तु
यह शिष्य पर निर्भर करता है कि वह किस प्रकार उस ज्ञान और पुरुषार्थ में वृद्धि
करके प्रगति के पथ पर अग्रसर हो सकता है… क्योंकि
अन्ततोगत्त्वा पुरुषार्थ तो व्यक्ति को स्वयं ही करना पड़ता है… वास्तव
में देखा जाए तो गुरु और शिष्य एक दूसरे के पूरक होते हैं… जिस
प्रकार गुरु अपने ज्ञान और शक्ति से शिष्य के उत्कर्ष की दिशा में प्रयत्नशील रहता
है उसी प्रकार शिष्य का भी कर्तव्य होता है कि वह गुरु का उचित सम्मान करे… और
यह भी सत्य है कि व्यक्ति के प्रथम गुरु उसके माता पिता ही होते हैं...
गुरु केवल शिष्य को उसका लक्ष्य बताकर उस तक पहुँचने का मार्ग ही नहीं
प्रशस्त करता… अपितु उसकी चेतना को अपनी
चेतना के साथ समाहित करके लक्ष्य प्राप्ति की यात्रा में उसका साथ भी देता है…
गुरु और शिष्य की आत्माएँ जहाँ एक हो जाती हैं वहाँ फिर अज्ञान के
अन्धकार के लिए कोई स्थान ही नहीं रह जाता… और गुरु के
द्वारा प्रदत्त यही ज्ञान कबीर के अनुसार गोविन्द यानी ईश्वर प्राप्ति यानी अपनी
अन्तरात्मा के दर्शन का मार्ग है… इसलिए गुरु की सत्ता ईश्वर से भी महान है…
हम सभी जानते हैं कि आषाढ़ मास की पूर्णिमा जिसे गुरु पूर्णिमा कहा
जाता है और जिसे व्यास पूर्णिमा के नाम से भी जाना जाता है... पंचम वेद
“महाभारत” के रचयिता कृष्ण द्वैपायन महर्षि वेदव्यास का जन्मदिन माना जाता है... महर्षि
वेदव्यास, जिन्होंने वेदों का संकलन किया, पुराणों और उप पुराणों की रचना की, ऋषियों के अनुभवों को सरल बना कर व्यवस्थित किया, पंचम
वेद ‘महाभारत’ की रचना की तथा विश्व के सुप्रसिद्ध आर्ष ग्रन्थ ब्रह्मसूत्र का
लेखन किया... और इसी सबसे प्रभावित होकर देवताओं ने महर्षि वेदव्यास को “गुरुदेव”
की संज्ञा प्रदान की तथा उनका पूजन किया.. तभी से व्यास पूर्णिमा को “गुरु
पूर्णिमा” के रूप में मनाने की प्रथा चली आ रही है...
बौद्ध ग्रन्थों के अनुसार भी ज्ञान प्राप्ति के
पाँच सप्ताह बाद भगवान बुद्ध ने सारनाथ पहुँच कर आषाढ़ पूर्णिमा के दिन ही अपने
प्रथम पाँच शिष्यों को उपदेश दिया था... इसलिये बौद्ध धर्मावलम्बी भी इसी दिन गुरु
पूजन का आयोजन करते हैं...
प्राचीन काल में जब आश्रम व्यवस्था थी तब २५ वर्ष
की आयु हो जाने तक विद्यार्थी गुरुकुल में रहकर ही समस्त शास्त्रों का तथा युद्ध, संगीत, चित्रकला, मूर्तिकला
इत्यादि कलाओं का, ज्योतिष आदि अनेकों विधाओं आदि का अध्ययन किया
करते थे... और प्रायः यह अध्ययन निःशुल्क होता था... गुरुजन इस कार्य के लिये किसी
प्रकार की “दक्षिणा” आदि नहीं लेते थे... उन
गुरुजनों तथा उनके आश्रम में रह रहे शिष्यों के जीवन यापन का समस्त भार गृहस्थ लोग
वहन किया करते थे... उस समय आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा के दिन तथा शिक्षा पूर्ण होने के
पश्चात् गुरुकुल छोड़कर जब सांसारिक जीवन में प्रविष्ट होने का समय होता था उस समय
भी गुरुजनों का पूजन करके यथाशक्ति गुरु दक्षिणा आदि देने की प्रथा थी... और इस
गुरुपूजा के अवसर पर न केवल गुरुओं का स्वागत सत्कार किया जाता था, बल्कि
माता पिता तथा अन्य गुरुजनों की भी गुरु के समान ही पूजा अर्चना की जाती थी...
वैसे भी व्यक्ति के प्रथम गुरु तो उसके माता पिता ही होते हैं... हमने भी जो कुछ
लेखन का क ख ग सीखा या स्वर सप्तक का जो भी थोड़ा बहुत ज्ञानार्जन किया वो सब हमारे
पूज्य पिताजी के ही सान्निध्य में किया... घर के शेष कार्य और समूची शिक्षा दीक्षा
माँ की देख रेख में सम्पन्न हुई...
एक और तथ्य इस गुरु पूजा के सन्दर्भ में... वो ये
कि आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा से प्रायः वर्षा आरम्भ हो जाती है... और पुराने ज़माने में
तो चार चार महीनों तक इन्द्र देव धरती पर अमृत रस बरसाते रहते थे... जिसे
चातुर्मास अथवा चौमासा भी कहा जाता था... आवागमन के साधन इतने थे नहीं... इसलिए
होता क्या था कि चातुर्मास की उस अवधि में सभी ऋषि मुनि एक ही स्थान पर निवास करते
थे... इसलिए उन चार महीनों की अवधि में प्रतिदिन गुरु के सान्निध्य का सुअवसर
शिष्यों को प्राप्त होता था और उनकी शिक्षा निरवरोध चलती रहती थी... विद्या
अधिकाँश में श्रवण मनन और निदिध्यासन के माध्यम से होती थी... यानी गुरु जो कुछ
ज्ञान का कथन करते थे शिष्य उनका श्रवण करके उस पर मनन करते थे और जब उस पर मनन
करके मन शान्त होकर आनन्द की अनुभूति होने लगती थी तो उस निदिध्यासन की अवस्था में
सारा श्रौत ज्ञान उन्हें कंठस्थ हो जाया करता था... साथ ही गुरु के मुख से सुनकर
उस विद्या का व्यावहारिक पक्ष भी विद्यार्थियों को समझ आता था और वह विद्या
जीवनपर्यन्त शिष्य को न केवल स्मरण रहती थी, बल्कि
उसके जीवन का अभिन्न अंग ही बन जाया करती थी... इस समय मौसम भी अनुकूल होता था – न
अधिक गर्मी न सर्दी... तो जिस प्रकार सूर्य से तप्त भूमि को वर्षा से शीतलता तथा
फसल उपजाने की सामर्थ्य प्राप्त होती है उसी प्रकार गुरुचरणों में उपस्थित साधकों
को ज्ञानार्जन की सामर्थ्य प्राप्त होती थी और उनके व्यक्तित्व की नींव दृढ़ होती
थी जो उसके व्यक्तित्व के विकास में सहायक होती थी... और इस प्रकार से शिक्षा
प्राप्त करने में गुरु के प्रति सम्मान का भाव सहज ही उत्पन्न होगा... इस प्रकार
से देखा जाए तो ये गुरु पूजा पूर्ण रूप से तर्क संगत या वैज्ञानिक भी कही जा सकती
है... अस्तु, अन्त में सभी गुरुजनों के सम्मान में कुछ
पंक्तियाँ...
जीवन के घोर
अँधेरे में, भर तुमने व्याप्त प्रकाश दिया
हो जलद ज्ञान से
भरे हुए, तुम ज्ञान हमें सिखलाते हो...
जब भी मन में कुछ
विभ्रम हो, सन्देहों का जो डेरा हो
तुम दूर भगा
सन्देह मनुज का, मन चेतन कर जाते हो...
जब मार्ग नहीं
सूझे कोई, तुम मन का दीप जलाते हो
क्या उचित और
क्या अनुचित है, ये भेद तुम्हीं बतलाते हो...
माँ की ममता भी
है तुममें, तो पिता समान है दृढ़ता भी
और मित्रों के सम
हर सुख दुःख में साथ तुम्हीं दे जाते हो...
हो जाए कोई जो
भूल, उसे तुम निज स्नेहों से ढक देते
व्यक्तित्व
प्रभावी हो अपना, तुम इसी हेतु
तत्पर रहते...
बस मात पिता और
गुरुजन ही निस्वार्थ स्नेह देते रहते
और कोमल मन के
भावों को संकल्पों से भरते रहते...
हम श्रद्धानत
विनती करते, भावों के सुमन करें अर्पण
कर्तव्य मार्ग पर
डटे रहे, आशीष हमें बस इतना दो...
और इसी के साथ एक
बार पुनः गुरुचरणों में श्रद्धा सुमन समर्पित करते हुए सभी को गुरु पूर्णिमा की
अनेकशः हार्दिक शुभकामनाएँ... इस भावना के साथ कि गुरु और शिष्य की आत्मा ज्ञान के
सूत्र से उसी प्रकार एक हो जाए जिस प्रकार प्राचीन काल में हो जाया करती थी...
कात्यायनी...