प्रकृति की
प्रगति यात्रा
ठिठुराती भीषण ठण्ड में
जब प्रकृति नटी ने छिपा लिया हो स्वयं को
चमकीली बर्फ की घनी चादर में…
छाई हो चारों ओर घरों की छत पर और आँगन में
खामोशी के साथ बरसती धुँध
नहीं दीख पड़ता कि चादर के उस पार दूसरा कौन है...
और फिर इसी द्विविधा को दूर करने
धीरे धीरे मीठी मुस्कान लिए सूर्यदेव का ऊपर
उठना
जो कर देता है खिलखिलाती स्वर्णिम धूप को आगे
मिटाने को मन की द्विविधा...
जो परोस देती है स्वर्ण में पिरोई मोतियों की
लड़ियाँ
प्रकति की विशाल थाली में
और मुस्कुरा उठता है प्रकृति का हर कण आनन्द में
भर
तब याद आता है अपना बचपन...
वो माँ का रजाई के भीतर हाथ डालकर
हौले हौले से अपने ठंडे हाथ मुँह पर फिराकर
पुकारना...
वो दोस्तों के साथ धूप रहते आँगन में चारपाई पर
बैठकर मूँगफली खाना
और माँ को स्वेटर बुनते देखना...
या फिर दोस्तों के साथ धूप में बाहर चबूतरे पर
धमा चौकड़ी मचाना...
साँझ ढलते है माँ का फिर से
“अरे ठण्ड खा जाओगे, भीतर आओ” की पुकार भेजना...
धूप सेंकते माँ पिताजी की मूँगफली छीलते और गज़क
खाते मीठी नोंक झोंक
और देखते ही देखते फिर से छिप जाना कोहरे की घनी
चादर में
प्रकृति सुकुमारी का...
जिसके साथ शुरू हो जाती थी माँ और पिताजी की
बिटिया को अपनी बाहों की गरमाहट में छिपा लेने
की मीठी होड़...
इसी मिठास के साथ धीरे धीरे बड़े होते जाना
जिम्मेदारियों और काम का बोझ खुद अपने ऊपर आ
जाना
क्योंकि आज न माँ है न पिताजी
बल्कि मैं खुद बन चुकी हूँ अपनी बिटिया के लिए
एक मीठा गर्म अहसास
“माँ”
इस पल्लवित पुष्पित प्रकृति के साथ ही...
और अब जब देखती हूँ बर्फ का लंहगा पहने
कोहरे की चादर में लिपटी
शान्तचित्त ध्यान में मग्न प्रकृति को
तो अहसास होने लगा है खुद अपने भीतर की शान्ति
और ऊष्मा का...
सूर्य की मुस्कराहट के साथ खिलखिलाती मोती
बिखराती धूप से
जब धीरे धीरे भंग होता है प्रकृति का ध्यान
और जुट जाती है वह अपने नित्य प्रति के कर्तव्य
कर्मों में
तब अहसास होता है मानव जीवन की प्रगति यात्रा का...
ठण्ड ठिठुर रही है तो क्या
शीघ्र ही वसन्त भी तो आने वाला है...
बर्फ को पिघलाती और धुँध को छांटती
फिर आएगी गर्मी और फिर बरसात…
नहीं रुकने पाती प्रकृति की यह प्रगति पथ की यात्रा…
चलती रहती है अनवरत निरन्तर निर्बाध…
इसी तरह मास कल्प और युगों युगों तक…