डॉ. दिनेश शर्मा ने जिस तरह मज़ाक़ मज़ाक़ में क़र्ज़
से लेकर साईबर क्राइम तक का हिसाब समझाया है, पढ़कर वास्तव में समझ आ गया... आप भी पढ़ें...
हमारेपड़ोसी नीरू भाई लंठानी के लौंडे - दिनेश डॉक्टर
मेरे और मेरे जैसे बहुत सारे घोंचूओ के अम्बानी, अडानी, अदनानी न बन कर छोटे से फ्लेट के दड़बे में
जिंदगी गुज़ार देने के पीछे हमारे पिता, दादा, परदादा, सगड दादा वगैरा की एक निहायत ही दकियानूसी
सोच है। 'बस बेटा किसी से न कभी कर्ज़ लेना और न कभी किसी के
आगे हाथ फैलाना' । और भी ज्ञान दिया गया - 'कर्ज़ लेने वाले की कमर हमेशा के लिए झुक जाती है' - ' जिसने कर्ज़ लिया उसकी रातो की नींद गयी' । मेरे
दिवंगत पूज्य पिता जी का तो रोज़ रोज़ का एक ही कर्ज़ मन्त्र था ' बेटा ! सोने से पहले आंख बन्द कर के विचार करो कि किसी का कर्ज़ या देनदारी
तो सिर पर नही है - अगर है तो अगली सुबह उठ कर सबसे पहले उसे चुकाओ और फिर कुछ खाओ'
। जिन दिनों पिता जी दिन रात मुझे कर्ज़ न लेने का ये मन्त्र रटवा
रहे थे उन्ही दिनों हमारा पड़ौसी नीरू भाई लंठानी अपने लौंडो को चार्वाक का मन्त्र
रटवा रहा था । यावत जीवेत सुखम जीवेत - ऋणम कृत्वा घृतं पीवेत । यानी बेटों जब तक
जियो ऐश से जिओ और घी पीने (चार्वाक के जमाने में घी और दूध ही असली ऐश थी) और ऐश
करने को कर्ज़ भी लेना पड़े तो लो ।
पिताजी जिंदगी भर टूटी साइकिल की चेन चढ़ाते चढ़ाते काट
गए और मैं भी "पूर्वजनों येन गतः स
पन्थः" यानि कि बड़े जिस मार्ग पर चले वही रास्ता सही है की सीख से जिंदगी भर
नगद रुपयों से खरीदी पुरानी खटारा गाड़ियां चलाता रहा । कर्ज़ लेकर उतार न पाने के
भय से किराए के मकानों में रहता रहा और बैंक में घटते ब्याज पर छोटी मोटी फिक्स्ड
डिपॉजिट करवा कर 'संतोष ही जीवन है' की
पौराणिक कथाएँ पढ़ता रहा । उधर घंटानी फड़ानी लंठानी मोदी फोदी के लौंडे बैंक वालों
को रिश्वत खिलाकर मेरी गाढ़ी कमाई उड़ा कर विदेशों में चार्वाक का घी पीते रहे ।
खुदा से खौफ खाने वाले और ईमानदारी से दीन के रास्ते पर पांच वक़्त नमाज़ के पाबंद
मेरे मुसलमान भाइयों के साथ तो और भी बुरा हुआ । एक लंठानी टाइप के बन्दे ने
इस्लामी बैंक खोल कर अल्लाह और इस्लाम के नाम पर हाजियों और नमाज़ियों के सारे पैसे
बैंक की अंटी में जमा किये और थोड़े ही दिनों में पूरा बैंक ही उठा कर फुर्र हो गया
। बेचारे गरीबों के हाथ में सिर्फ तस्बीह और बैंक की चैक बुक पास बुक ही रह गयी ।
जब तक मुझ जैसे चू#यों को चार्वाक समझ आया और कुछ हौसला करके कर्ज़ लेने की ठानी तो पता लगा
बैंक दिवालिया हो चुके है और काउंटर पर प्लास्टिक की रस्सी से बंधा दो रुपये वाला
बाल पैन ही बचा है । जिन कोकिला स्वर कन्याओं के मीठी आवाज में कर्ज़ लेने की दिन
में पाँच दस बार कॉलें आती थी, वे भी पता नही कहाँ गायब हो
गयी । अब कर्ज़ फ़र्ज़ तो ससुरा गया भाड़ की भट्टी में फिक्र ये पड़ी है कि थोड़ा बहुत
रुपया जो बडी मेहनत से जिंदगी भर जोड़ जाड़कर बुढ़ापे में दाल रोटी के लिए ब्याज की
पेंशन के चक्कर में बैंक के खाते में पड़ा है उसका क्या करें । घर लाकर रक्खे तो ये
डर कि कहीं फिर मोदी जी रात के आठ बजे वाला 'भाइयो और बहनों'
का सबकी माँ बहन करने वाला प्रसारण न सुना दें । बैंक में छोड़े तो
ये डर कि चार्वाक के भक्त बैंक लूट कर विदेश भागकर देसी घी की पार्टियां न करने
लगें ।
अभी इस दमघोटू दुश्वारी से निज़ात भी न मिली थी कि
साइबर क्रिमिनलों की लंबी बांह की खबर ने और भी डरा दिया । सुना है दूर बैठे बैठे
कहीं के भी खातों से ऑनलाइन नाम का पाईप डाल कर सारे पैसे पीकर आपको ठन ठन गोपाल
बना देते है । तब से ऊपर की सांस ऊपर और नीचे की नीचे ही रहती है और हर हफ्ते पास
बुक थामे बैंक काउंटर क्लर्कों की खीज भरी पर तसल्ली देने वाली झिड़कियां सुनता रहता
हूँ - "अरे अंकल जी जब कोई ट्रांजेक्शन हुआ ही नही तो क्यों अपडेट करवाने आ
गए" ।
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