प्रेम
बन जाएगा
ध्यान
प्रेम, एक
ऐसा अनूठा भाव जिसका न कोई रूप न रंग... जो स्वतः ही आ जाता है मन के भीतर...
कैसे... कब... कहाँ... कुछ नहीं रहता भान... हाँ, करने लगे यदि
मोल भाव... तो रह जाना होता है रिक्त हस्त... इसी प्रकार के कुछ उलझे सुलझे से भाव
हैं हमारी आज की रचना में... जो प्रस्तुत है सुधी पाठकों के लिए... कात्यायनी...
मैंने देखा, और
मैं देखती रही / मैंने सुना, और मैं सुनती रही
मैंने सोचा, और
मैं सोचती रही / द्वार खोलूँ या ना खोलूँ...
प्रेम खटखटाता
रहा मेरा द्वार / और भ्रमित मैं बनी रही जड़
खोई रही अपने
ऊहापोह में...
तभी कहा किसी
ने / सम्भवतः मेरी अन्तरात्मा ने
तुम द्वार खोलो
या ना खोलो / द्वार टूटेगा,
और प्रेम आएगा
भीतर
कब, इसका भान
भी नहीं हो पाएगा तुम्हें...
हाँ, यदि करती
रही प्रयास इसे पाने का
गणनाएँ और मोल
भाव
तो लौटना होगा
रिक्त हस्त
क्योंकि रह
जाएगा वह बाहर ही द्वार के...
क्या होगा,
इसका प्रश्न क्यों ?
कैसे होगा,
इसका चिन्तन क्यों ?
कितना होगा,
इसका मनन क्यों ?
छोड़ दो ये सारे
प्रश्न, विचार, चिन्तन और मनन
प्रेम के
प्रकाश को करने दो पार
सीमाएँ अपने
समस्त तर्कों की
और तब, प्रेम
बन जाएगा ध्यान...
ध्यान, जो तुम
स्वयं हो
ध्यान, जो होगा
तुममें
ध्यान, जो होगा
तुम्हारे लिये
ध्यान, जो होगी
तुम स्वयम्...
___________
कात्यायनी डॉ पूर्णिमा शर्मा