आश्विन शुक्ल प्रतिपदा यानी शनिवार
17 अक्तूबर से शारदीय नवरात्रों का आरम्भ होने जा रहा है | महिषासुरमर्दिनी के मन्त्रों के
उच्चार के साथ नवरात्रों में माँ भगवती के नौ रूपों की पूजा अर्चना आरम्भ हो जाएगी
| इस अवसर पर स्थान स्थान पर देवी के पण्डाल सजाए जाएँगे जहाँ दिन दिन भर और देर
रात तक माँ दुर्गा की पूजा का उत्सव रहेगा नौ दिनों तक, जिसका समापन दसवें दिन धूम
धाम से देवी की प्रतिमा विसर्जन के साथ किया जाएगा | इस वर्ष कोरोना से बचाव को
देखते हुए सम्भवतः इतनी धूम न रहे, किन्तु फिर भी पर्व के उत्साह में तो कोई कमी
नहीं आएगी |
नवरात्रि के महत्त्व के विषय में विवरण मार्कंडेय पुराण,
वामन पुराण, वाराह पुराण, शिव पुराण, स्कन्द पुराण और देवी भागवत आदि पुराणों में
उपलब्ध होता है | इन पुराणों में देवी दुर्गा के द्वारा महिषासुर के मर्दन का
उल्लेख उपलब्ध होता है | महिषासुर मर्दन की इस कथा को “दुर्गा सप्तशती” के रूप में
देवी माहात्म्य के नाम से जाना जाता है | नवरात्रि के दिनों में इसी माहात्म्य का
पाठ किया जाता है और यह बुराई पर अच्छाई की विजय का प्रतीक माना जाता है | जिसमें 537 चरणों में 700 मन्त्रों के
द्वारा देवी के माहात्म्य का जाप किया जाता है | इसमें देवी के तीन मुख्य रूपों –
काली अर्थात बल, लक्ष्मी और सरस्वती की पूजा के द्वारा देवी के तीन चरित्रों –
मधुकैटभ वध, महिषासुर वध तथा शुम्भ निशुम्भ वध का वर्णन किया जाता है |
महिषासुर मर्दन की कथा कुछ इस प्रकार है कि दानुकासुर
के दो पुत्र थे – रम्भ और करम्भ | अत्यन्त बलशाली होने का वरदान प्राप्त करने के
लिये दोनों भाइयों ने घोर तपस्या की | इन्द्र इनकी तपस्या से घबरा गए और उन्होंने
मगरमच्छ का रूप धारण करके जल में तप कर रहे करम्भ का वध कर दिया | रम्भ को जब इस
बात का पता चला तो उसने और भी कठिन तपस्या की और एक वरदान प्राप्त किया कि किसी भी
युद्ध में न तो कोई मनुष्य उसे मार सके, न कोई देवता उसका वध कर सके और न ही कोई
असुर | वर प्राप्त करने के बाद वर के मद में मस्त असुर यक्ष के उपवन में भ्रमण
करने जा पहुँचा | वहाँ एक गाय भी घूम रही थी | असुर उस गाय पर मोहित हो गया और उसने
महिष का रूप धारण करके उस गाय के साथ प्रेमक्रीड़ा आरम्भ कर दी | इसी बीच वास्तविक
महिष वहाँ आ गया और रम्भ को पहचान कर उसका वध कर दिया | रम्भ ने मनुष्य, देवता और
असुरों के हाथों न मारे जाने का वर तो माँगा था, किन्तु पशु भी वध न कर सके ऐसा वर
नहीं माँगा था अपने अहंकार के कारण, इसलिये पशु के हाथों मारा गया | किन्तु वह गाय
उस समय तक गर्भवती हो चुकी थी | अतः रम्भ की चिता में कूदकर उसने भी जान दे दी |
उसके मृत शरीर से जो ज्वाला निकली उससे एक दैत्य बाहर निकला, जिसका सर भैंसे जैसा
था और शेष शरीर मनुष्य जैसा | इस कारण उसका नाम पड़ा महिषासुर |
महिषासुर महान बली था | उसने समस्त देवों और
दैत्यों को युद्ध में परास्त कर दिया | स्वर्ग पर अधिकार करके सभी देवताओं को अपना
दास बना लिया | तब देवताओं ने ब्रह्मा जी से प्रार्थना की और उनके साथ शिव और
विष्णु के पास जा पहुँचे सहायता माँगने के लिये | ब्रह्मा, विष्णु और महेश
महिषासुर के कृत्य से अत्यन्त क्रोधित हुए और इस त्रिमूर्ति के क्रोध से एक
विचित्र नारीरूपा आकृति उत्पन्न हुई जिसे दुर्गा कहा गया | क्योंकि यह आकृति
“दुर्गा” ब्रह्मा विष्णु महेश के क्रोध का परिणाम थी इसलिये अन्य सभी देवताओं की
अपेक्षा अधिक बलशाली थीं | साथ ही इस आकृति के समस्त अंग प्रत्यंग भी विविध
देवताओं के तेज से ही निर्मित थे इसलिये स्वाभाविक रूप से अत्यन्त रूपवती भी थी | दुर्गा
को सभी देवताओं ने अपने अपने अस्त्र भेंट में दे दिए| साथ ही हिमवान ने अपना सिंह
सवारी के लिये भेंट कर दिया | “समस्तदेवानां तेजोराशिसमुद्भवा” दुर्गा और भी अधिक
शक्तिशाली हो गई थीं | अब देवी देवताओं को महिषासुर से मुक्ति दिलाने चलीं |
महिषासुर देवी पर मुग्ध हो गया और उनके समक्ष विवाह का प्रस्ताव रख दिया | देवी ने
कहा कि यदि वह उन्हें युद्ध में परास्त कर देगा तो वे उसके साथ विवाह कर लेंगी |
युद्ध आरम्भ हुआ जो नौ दिनों तक चला | अन्त में दुर्गा ने चन्द्रिका का रूप धारण
किया और महिषासुर को अपने पैरों के नीचे गिराकर उसका सर काट डाला | सम्भवतः इसी
घटना की स्मृति में आश्विन मास शुक्ल प्रतिपदा से नौ दिनों तक दुर्गा पूजा का
अनुष्ठान चलता है | पितृ पक्ष की अमावस्या को महालया के दिन पितृ तर्पण के बाद से
आरम्भ होकर नवमी तक अनुष्ठान चलता है और दशमी को प्रतिमा विसर्जन के साथ अनुष्ठान
का समापन होता है | इस वर्ष अधिक मास के कारण महालया और प्रथम नवरात्र में लगभग एक
माह का अन्तराल रहा |
इन नौ दिनों में दुर्गा के विविध रूपों की पूजा
की जाती है | ये नौ रूप सर्वज्ञ महात्मा वेद भगवान के द्वारा ही प्रतिपादित माने
जाते हैं |
“प्रथमं शैलपुत्रीति द्वितीयं ब्रह्मचारिणी,
तृतीयं चन्द्रघंटेति कूष्माण्डेति चतुर्थकम् |
पञ्चमं स्कन्दमातेति षष्ठं कात्यायनी तथा
सप्तमं कालरात्रीति महागौरीति चाष्टमम् ||
नवमं सिद्धिदात्री च नवदुर्गा प्रकीर्तिता:,
उक्तान्येतानि नामानि ब्रह्मणैव महात्मना ||
प्रथम दिन अर्थात आश्विन शुक्ल प्रतिपदा को
शैलपुत्री की अर्चना की जाती है | शैलपुत्री का रूप माना जाता है कि इनके दो हाथों
में से एक में त्रिशूल और दूसरे हाथ में कमलपुष्प होता है | भैंसे पर सवार माना
जाता है | माना जाता है कि शिव की पत्नी सती ने अपने पिता दक्ष के यज्ञ में अपने
पति का अपमान देखकर उसी यज्ञ की अग्नि में कूदकर स्वयं को होम कर दिया था और उसके
बाद हिमालय की पत्नी मैना के गर्भ से हिमपुत्री पार्वती के रूप में जन्म लिया और
घोर तपस्या करके पुनः शिव को पति के रूप में प्राप्त किया | यद्यपि ये सबकी अधीश्वरी
हैं तथापि पौराणिक मान्यता के अनुसार हिमालय की तपस्या और प्रार्थना से प्रसन्न हो
कृपापूर्वक उनकी पुत्री के रूप में प्रकट हुईं | शक्ति का यह प्रथम रूप शिव के साथ
संयुक्त है, जो प्रतीक है इस तथ्य का कि शक्ति और शिव के सम्मिलन से ही जगत का
कल्याण सम्भव है |
दुर्गा का दूसरा रूप ब्रह्मचारिणी का है –
ब्रह्म चारयितुं शीलं यस्याः सा ब्रह्मचारिणी – अर्थात् ब्रह्मस्वरूप की प्राप्ति
करना जिसका स्वभाव हो वह ब्रह्मचारिणी | इस रूप में भी देवी के दो हाथ हैं और एक
हाथ में जपमाला तथा दूसरे में कमण्डल दिखाई देता है | जैसा कि नाम से ही स्पष्ट
होता है, ब्रह्मचारिणी का रूप है इसलिये निश्चित रूप से अत्यन्त शान्त और पवित्र
स्वरूप है तथा ध्यान में मग्न है | यह रूप देवी के पूर्व जन्मों में सती और
पार्वती के रूप में शिव को प्राप्त करने के लिये की गई तपस्या को भी दर्शाता है |
देवी के इस रूप को तपश्चारिणी भी कहा जाता है |
नवरात्र के तीसरे दिन चन्द्रघंटा देवी की
अर्चना की जाती है | चन्द्रः घंटायां यस्याः सा चन्द्रघंटा – आह्लादकारी चन्द्रमा
जिनकी घंटा में स्थित हो वह देवी चन्द्रघंटा के नाम से जानी जाती है | इस रूप में
देवी के दस हाथ दिखाए गए हैं और वे सिंह पर सवार दिखाई देती हैं | उनके हाथों में
कमण्डल, धनुष, बाण, कमलपुष्प, चक्र, जपमाला, त्रिशूल, गदा और तलवार सुशोभित हैं |
अर्थात् महिषासुर का वध करने के निमित्त समस्त देवों के द्वारा दिए गए अस्त्र देवी
के हाथों में दिखाई देते हैं | यह क्रोध में गुर्राता हुआ भयंकर रूप है जो पिछले
रूपों से बिल्कुल भिन्न है और इससे विदित होता है कि यदि देवी को क्रोध दिलाया जाए
तो ये अत्यन्त भयानक और विद्रोही भी हो सकती हैं |
देवी का चतुर्थ रूप कूष्माण्डा देवी का माना
जाता है | कुत्सितः ऊष्मा कूष्मा – त्रिविधतापयुतः संसारः, स अण्डे
मांसपेश्यामुदररूपायां यस्याः स कूष्माण्डा – अर्थात् त्रिविध तापयुक्त संसार
जिनके उदर में स्थित है वे देवी कूष्माण्डा कहलाती हैं | इस रूप में देवी के आठ
हाथ माने जाते हैं | इनके हाथों में कमण्डल, धनुष, बाण, कमलपुष्प, सुरापात्र,
चक्र, जपमाला और गदा दिखाई देते हैं | यह रूप देवी का आह्लादकारी रूप है और माना
जाता है कि जब कूष्माण्डा देवी आह्लादित होती हैं तो समस्त प्रकार के दुःख और कष्ट
के अन्धकार दूर हो जाते हैं | क्योंकि यह रूप कष्ट से आह्लाद की ओर ले जाने वाला
रूप है, अर्थात् विनाश से नवनिर्माण की ओर ले जाने वाला रूप, अतः यही रूप सृष्टि
के आरम्भ अथवा पुनर्निर्माण की ओर ले जाने वाला रूप माना जाता है |
देवी का पाँचवाँ रूप स्कन्दमाता का रूप माना
जाता है और नवरात्रों के पञ्चम दिन इसी रूप की अर्चना की जाती है | इस रूप में
देवी के चार हाथ माने जाते हैं और सिंह पर सवार मानी जाती हैं | इनके हाथों में
कमण्डल, कमलपुष्प और घंटा सुशोभित हैं | एक हाथ आशीर्वाद की मुद्रा में दिखाई देता
है | इस रूप में इन्हें सुब्रह्मण्य अथवा कार्तिक की माता माना जाता है, जिन्हें
स्कन्द के नाम से भी जाना जाता है | शिवपुत्र कार्तिक अथवा स्कन्द का जन्म शिव और
पार्वती के सम्मिलन का परिणाम था और तारकासुर के वध के निमित्त हुआ था | छान्दोग्यश्रुति
के अनुसार भगवती की शक्ति से उत्पन्न हुए सनत्कुमार का नाम स्कन्द है, और उन
स्कन्द की माता होने के कारण ये स्कन्दमाता कहलाती हैं | इसीलिये यह रूप एक उदार
और स्नेहशील माता का रूप है |
देवी का छठा रूप कात्यायनी देवी का है | इस रूप
में भी इनके चार हाथ माने जाते हैं और माना जाता है कि इस रूप में भी ये शेर पर
सवार हैं | इनके तीन हाथों में तलवार, ढाल और कमलपुष्प हैं तथा स्कन्दमाता की ही
भांति एक हाथ आशीर्वाद की मुद्रा में दिखाई देता है | देवताओं का कार्य सिद्ध करने
के लिये देवी महर्षि कात्यायन के आश्रम पर प्रकट हुईं और महर्षि ने उन्हें अपनी
पुत्री के रूप में स्वीकार किया, इसीलिये “कात्यायनी” नाम से उनकी प्रसिद्धि हुई |
इस प्रकार देवी का यह रूप पुत्री रूप है | यह रूप निश्छल पवित्र प्रेम का प्रतीक
है, किन्तु कुछ भी अनुचित होता देखकर कभी भी भयंकर क्रोध में आ सकती हैं |
देवी का सातवाँ रूप कालरात्रि का रूप माना जाता
है | सबका अन्त करने वाले काल की भी रात्रि अर्थात् विनाशिका होने के कारण इनका
नाम कालरात्रि है | इस रूप में इनके चार हाथ हैं और ये गधे पर सवार दिखाई देती हैं
| इनके हाथों में तलवार, त्रिशूल और पाश दिखाई देते हैं | एक हाथ आशीर्वाद की
मुद्रा में दिखाई देता है | इस रूप में इनका वर्ण श्याम है तथा ये प्रतिकार अथवा
क्रोध की मुद्रा में दिखाई देती हैं | यह मुद्रा में इनका भाव अत्यन्त कठोर तथा
उत्तेजित दिखाई देता है | देवी का यह आक्रामक तथा नकारात्मक रूप है | यह रूप इस कटु
सत्य का द्योतक है जीवन सदा आह्लादमय और सकारात्मक ही नहीं होता | जीवन का एक
दूसरा पक्ष भी होता है जो दुष्टतापूर्ण, निन्दनीय, अन्धकारमय अथवा नकारात्मक भी
होता है |
देवी का आठवाँ रूप है महागौरी का | माना जाता
है कि महान तपस्या करके इन्होने अत्यन्त गौरवर्ण प्राप्त किया था | इस रूप में भी
चार हाथ हैं और माना जाता है इस रूप में ये एक बैल अथवा श्वेत हाथी पर सवार रहती
हैं | दो हाथों में त्रिशूल और डमरू हैं | दो हाथ आशीर्वाद की मुद्रा में हैं | यह
रूप अत्यन्त सात्विक रूप है और माता पार्वती का उस समय का रूप माना जाता है जब
उन्होंने हिमपुत्री के रूप में शिव को पति रूप में प्राप्त करने के लिये घोर
तपस्या की थी |
देवी का अन्तिम और नवम रूप है सिद्धिदात्री का
| जैसा कि नाम से ही ध्वनित होता है – सिद्धि अर्थात् मोक्षप्रदायिनी देवी - समस्त
कार्यों में सिद्धि देने वाला तथा समस्त प्रकार के ताप और गुणों से मुक्ति दिलाने
वाला रूप है यह | इस रूप में चार हाथों वाली देवी कमलपुष्प पर विराजमान दिखाई देती
हैं | हाथों में कमलपुष्प, गदा, चक्र और पुस्तक लिये हुए हैं | माँ सरस्वती का रूप
है यह | इस रूप में देवी अज्ञान का निवारण करके ज्ञान का दान देती हैं ताकि मनुष्य
को उस परमतत्व परब्रह्म का ज्ञान प्राप्त हो सके | अपने इस रूप में देवी सिद्धों,
गन्धर्वों, यक्षों, राक्षसों तथा देवताओं से घिरी रहती हैं | इस रूप की अर्चना
करके जो सिद्धि प्राप्त होती है वह इस तथ्य का ज्ञान कराती है कि जो कुछ भी है वह
अन्तिम सत्य वही परम तत्व है जिसे परब्रह्म अथवा आत्मतत्व के नाम से जाना जाता है
|
इस प्रकार नवरात्रों के नौ दिनों में पूर्ण
भक्तिभाव से मनोनुकूल फलप्राप्ति की कामना से देवी के इन रूपों की क्रमशः पूजा
अर्चना की जाती है | ये समस्त रूप सम्मिलित भाव से इस तथ्य का भी समर्थन करते हैं
कि शक्ति सर्वाद्या है | उसका प्रभाव महान है | उसकी माया बड़ी कठोर तथा अगम्य है
तथा उसका महात्म्य अकथनीय है | और इन समस्त रूपों का सम्मिलित रूप है वह प्रकृति
अथवा योगशक्ति है जो समस्त चराचर जगत का उद्गम है तथा जिसके द्वारा भगवान समस्त
जगत को धारण किये हुए हैं |