आत्मतत्व से ही समस्त चराचर की सत्ता
प्रायः
सभी दर्शनों की मान्यता है कि जितना भी चराचर जगत है, जितना भी दृश्यमान जगत है – पञ्चभूतात्मिका प्रकृति है –
उस समस्त का आधार जीवात्मा – आत्मतत्त्व ही है | वही परम तत्त्व है और उसी की
प्राप्ति मानव जीवन का चरम लक्ष्य है | किन्तु यहाँ प्रश्न
उत्पन्न होता है कि आत्मतत्व है क्या ? क्या यह नाशवान अर्थात क्षर है ? अथवा नाश
रहित अर्थात अक्षर है ? क्योंकि आत्मा तो प्रत्येक जीव में व्याप्त होती है | फिर
इसका भेद – आत्मतत्व का भेद – किस प्रकार ज्ञात हो ?
वास्तव
में तो शास्त्रों के अनुसार जीवात्मा चेतन है, अचल है, ध्रुव
है, नित्य है, भोक्ता है, इसका क्षरण नहीं होता, इसीलिये यह अक्षर है “द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च, क्षर: सर्वाणि भूतानि कूटस्थोSक्षर उच्यते | उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः | यो
लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वरः
||” (गीता – 15/16,17)
अर्थात,
संसार में दो प्रकार के पुरुष होते हैं - क्षर और अक्षर
– इनमें से नाशवान पुरुष क्षर कहलाता है तथा दूसरा पुरुष – जो कि नाश रहित है –
जिसका कभी अन्त नहीं होता – वह अक्षर पुरुष कहलाता है - जो कि भगवान की परा शक्ति माया
ही है | क्षर पुरुष की उत्पत्ति का साधन है बीज, तथा जो अनेक संसारी जीवों की कामना और कर्म आदि के
संस्कारों का आश्रय है – जो अपनी माया से समस्त ब्रह्माण्ड को व्याप्त कर स्थित है
- वह अक्षर पुरुष कहलाता है | कहने का अभिप्राय है कि समस्त भूत अर्थात् प्रकृति का
सारा विकार तो क्षर पुरुष है और कूटस्थ अर्थात् जो कूट की भाँति स्थित है वह अन्त रहित
होने के कारण अक्षर कहा जाता है | इसे इस प्रकार भी समझ सकते हैं कि समस्त पञ्चभूतात्मिका
प्रकृति क्षर है क्योंकि वह परिवर्तनशील तथा अन्तवान है, और कूटस्थ अर्थात जीवात्मा
अर्थात परमात्मा अक्षर है |
वह परमात्मा सूर्य के प्रकाश और ताप, चन्द्रमा के शीतल प्रकाश, पृथ्वी
की उर्वरा शक्ति, मनुष्य में ज्ञान, स्मृति तथा विस्मृति आदि की क्षमता के रूप में
अभिव्यक्त होता है | और ऐसा होने पर ये सब भी परमात्मस्वरूप ही भासित होते हैं | ये
सब विकारी हैं और इस कारण से जीवात्मा भी विकारी प्रतीत होने लगता है,
किन्तु जीवात्मा विकारी नहीं है | उसी प्रकार जैसे स्वर्ण से बने सभी आभूषण स्वर्ण
ही प्रतीत होते हैं, किन्तु वास्तव में वे विकारी होते हैं, क्योंकि स्वर्ण को
अनेकों रूपों में ढाल कर अनेक प्रकार के आभूषण निर्मित कर दिए जाते हैं | और इस
प्रकार इन आभूषणों के रूप में वह स्वर्ण परिच्छिन्न और परिवर्तनशील प्रतीत होता है
| वास्तव में आत्मा अक्षर पुरुष है, किन्तु उसका अक्षरत्व इस चर जगत् की अपेक्षा से ही है
| शरीर, मन और बुद्धि की परिवर्तनशील क्षर उपाधियों की अपेक्षा से ही आत्मा अक्षर
पुरुष कहलाता है | क्षर अर्थात नाशवान की सत्ता होगी तभी तो अक्षर अर्थात नाशरहित –
परिवर्तनरहित की सत्ता का भान होगा | पुरुष शब्द का अर्थ ही है पूर्ण | इसी अव्यय
और अक्षर आत्मा को वेदान्त में कूटस्थ कहते हैं | कूट का अर्थ है निहाई - वह यन्त्र
जिसके ऊपर स्वर्ण को रखकर कूटा जाता है – जिसके ऊपर एक स्वर्णकार स्वर्ण को रखकर उसे
नवीन आकार प्रदान करता है | इस प्रक्रिया में स्वर्ण तो परिवर्तित होता है, किन्तु
निहाई अर्थात कूट में कोई परिवर्तन नहीं होता | इसी प्रकार उपाधियों के समस्त
विकारों में यह आत्मा अविकारी ही रहता है | इसलिये उसे कूटस्थ कहते हैं - इन क्षर
और अक्षर पुरुषों से भिन्न तथा इनके दोषों से असंस्पृष्ट नित्य शुद्ध बुद्ध मुक्त
स्वभाव का पूर्ण पुरुष |
क्षर
अक्षर के विषय में पुराण संहिता में कहा गया है “अव्याकृतविहारोSसौ क्षर इत्यभिधीयते, तत्परं त्वक्षरं ब्रह्म वेदगीतं सनातनम् |” –
अव्याकृत का विहार, अर्थात् अव्यक्त से जो उदय-लय रूप में विकास पाता है उसे क्षर कहते
हैं | उससे
परे अक्षर ब्रह्म है, जिसे
वेद सनातन कहता है | महाभारत के शान्ति पर्व में जब युधिष्ठिर भीष्म
पितामह से क्षर व अक्षर पुरुष के विषय में पूछते हैं तो भीष्म पितामह उन्हें बताते
हैं “यच्चमूर्तिमयं
किंचित्सर्वं चैतन्निदर्शनम्, जले भुवि तथाकाशे नान्यत्रेति विनिश्चयः | कृत्स्नमेतावतस्तात क्षरते व्यक्तसंज्ञितम्, अहन्यहनि भूतात्मा तत: क्षर इति स्मृत: ||”
– जल स्थल तथा आकाश में जो कुछ मूर्तिमान
दृष्टिगोचर होता है, समस्त
विश्व में जो कुछ व्यक्त है वह सब निश्चित रूप से क्षर ही है | अक्षर के अतिरिक्त विश्व के सम्पूर्ण
पदार्थ, समस्त
प्राणिमात्र प्रतिदिन नष्ट होते हैं, अतः उन्हें क्षर कहा जाता है |
“अक्षरं ध्रुवमेवोक्तं पूर्णं ब्रह्म
सनातानम्, अनादिमध्
निधनं निर्द्वंदं कर्त्तृ शाश्वतम् | कूटस्थं चैव नित्यं च यद्वदन्ति मनीषिण:, यत: सर्वा: प्रवर्तन्ते सर्गप्रलयविक्रिया ||”
– निश्चित रूप से अविनाशी सनातन ब्रह्म का नाम
अक्षर है | उसी
को नित्य और कूटस्थ भी कहते हैं | उसी नित्य एवं शाश्वत कर्ता के द्वारा सृष्टि प्रलय आदि क्रियाएँ होती
हैं | इस
प्रकार अक्षर ब्रह्म का तात्पर्य उस कूटस्थ नित्य से है जो आत्मतत्व है | और इसी की प्रेरणा से यह व्यक्त
विश्व प्रतीत होता है |
कहने
का अभिप्राय यह है कि आत्मतत्व से ही विश्व की सत्ता है, समस्त चराचर की सत्ता
है...
_______________डॉ पूर्णिमा
शर्मा