येन बद्धो बली राजा दानवेन्द्रो महाबल: |
तेन त्वामपि बध्नामि रक्षे मा चल मा चल ॥
जिस रक्षासूत्र को महान शक्तिशाली राजा इन्द्र को बाँधा गया था और उन्हें बलप्राप्त होकर वे युद्ध में विजयी हुए थे उसी रक्षासूत्र में हम आपको बाँधते हैं | आप अपने संकल्पों में अडिग रहते हुए कर्तव्य पथ पर सदा अग्रसर रहें... इसी संकल्प के साथ आइये हम सब अपने भाइयों, मित्रों और सभी परिचितों की कलाई पर रक्षासूत्र बाँधें |
कल रक्षा बन्धन का उल्लासमय और प्रेममय पर्व है | सभी को बहुत बहुत बधाई | जैसा कि हम सब ही जानते हैं कि श्रावण मास की पूर्णिमा के दिन मनाया जाने वाला रक्षा बन्धन का पर्व एक ऐसा पर्व है जिसकी प्रतीक्षा हर कोई बड़ी उत्कण्ठा के साथ करता है | लोकभाषाओं में इस पर्व को सलूनो, राखी और श्रावणी भी कहा जाता है | क्योंकि यह पर्व श्रावण मास की पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है इसलिये इसे श्रावणी कहते हैं | इस दिन बहनें अपने भाई के दाहिने हाथ पर रक्षा सूत्र बाँधकर उसकी दीर्घायु की कामना करती हैं | जिसके बदले में भाई उनकी रक्षा का वचन देता है | साथ ही इस अवसर पर तथा अन्य भी पूजा विधानों में रक्षासूत्र बाँधते समय राजा बलि की कथा से सम्बद्ध उपर्लिखित मन्त्र का उच्चारण भी किया जाता है...
सगे भाई बहन के अतिरिक्त अन्य भी अनेक सम्बन्ध इस भावनात्मक सूत्र के साथ बंधे होते हैं जो धर्म, जाति और देश की सीमाओं से भी ऊपर होते हैं | कहने का अभिप्राय यह है की यह पर्व केवल भाई बहन के ही रिश्तों को मज़बूती नहीं प्रदान करता वरन जिसकी कलाई पर भी यह सूत्र बाँध दिया जाता है उसी के साथ सम्बन्धों में माधुर्य और प्रगाढ़ता घुल जाती है | यही कारण है कि इस अवसर पर केवल भाई बहनों के मध्य ही यह त्यौहार नहीं मनाया जाता अपितु गुरु भी शिष्य को रक्षा सूत्र बाँधता है, मित्र भी एक दूसरे को रक्षा सूत्र बाँधते हैं | भारत में जिस समय गुरुकुल प्रणाली थी और शिष्य गुरु के आश्रम में रहकर विद्याध्ययन करते थे उस समय अध्ययन के सम्पन्न हो जाने पर शिष्य गुरु से आशीर्वाद लेने के लिये उनके हाथ पर रक्षा सूत्र बाँधते थे तो गुरु इस आशय से शिष्य के हाथ में इस सूत्र को बाँधते थे कि उन्होंने गुरु से जो ज्ञान प्राप्त किया है सामाजिक जीवन में उस ज्ञान का वे सदुपयोग करें ताकि गुरुओं का मस्तक गर्व से ऊँचा रहे | आज भी इस परम्परा का निर्वाह धार्मिक अनुष्ठानों में किया जाता है | कई जगहों पर पुत्री भी पिता को राखी बाँधती है उनका आशीर्वाद प्राप्त करने के लिये | वन संरक्षण के लिये वृक्षों को भी राखी बाँधी जाती है | 1947 के भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में भी जन जागरण के लिये राखी को माध्यम बनाया गया था | गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर ने बंग-भंग का विरोध करते समय इस पर्व को बंगाल के निवासियों के पारस्परिक भाईचारे तथा एकता के प्रतीक के रूप में इसका राजनीतिक उपयोग आरम्भ किया था |
इस दिन यजुर्वेदी द्विजों का उपाकर्म होता है | उत्सर्जन, स्नान विधि, ऋषि तर्पण आदि करके नवीन यज्ञोपवीत धारण किया जाता है | प्राचीन काल में इसी दिन से वेदों का अध्ययन आरम्भ करने की प्रथा थी | मनुस्मृति में कहा गया है कि श्रावण मास की पूर्णिमा तिथि से आरम्भ करके साढ़े चार मास तक वेदों का अध्ययन करना चाहिए और पौष अथवा माघ माह की शुक्ल प्रतिपदा को इसका उत्सर्जन कर देना चाहिए |
श्रावण्यां पौष्ठपद्यां वाप्युपाकृत्य यथाविधि, युक्तश्छन्दांस्यधीयीत मासान् विप्रोSर्ध पंचमान् || पुष्ये तु छंदस कुर्याद बहिरुत्सर्जनं द्विज:, माघशुक्लस्य वा प्राप्ते पूर्वार्धे प्रथमेSहनि ||
इसका एक कारण कृषि भी था | आषाढ़ और श्रावण मास में वनों में वर्षा की अधिकता के कारण ऋषि मुनि गाँवों के निकट आकर रहना आरम्भ कर देते थे | इसे ही चातुर्मास भी कहा जाता था | ऋषि मुनियों के गाँवों के निकट आकर रहने से ग्रामीणों को ये लाभ होता था कि उन्हें इन गुणीजनों के साथ वेदाध्ययन करने का अवसर प्राप्त हो जाया करता था | जिस दिन से वेदाध्ययन आरम्भ होता था उसे उपाकर्म अर्थात आरम्भ करने का कर्म कहते थे | क्योंकि यह श्रावण मास की पूर्णिमा को आरम्भ होता था इसलिए इसे “श्रावणी उपाकर्म” कहा जाने लगा | इन साढ़े चार महीनों की अवधि में प्रतिदिन वेदाध्ययन, सन्ध्या, अग्निहोत्र आदि का पालन किया जाता था | नया यज्ञोपवीत धारण करके स्वाध्याय का व्रत लिया जाता था |
विष्णु पुराण के एक प्रसंग में कहा गया है कि श्रावण की पूर्णिमा के दिन भागवान विष्णु ने हयग्रीव के रूप में अवतार लेकर वेदों को ब्रह्मा के लिए फिर से प्राप्त किया था । हयग्रीव को विद्या और बुद्धि का प्रतीक माना जाता है । ऋग्वेदीय उपाकर्म श्रावण पूर्णिमा से एक दिन पहले सम्पन्न किया जाता है | जबकि सामवेदीय उपाकर्म श्रावण अमावस्या के दूसरे दिन प्रतिपदा तिथि में किया जाता है |
महाराष्ट्र राज्य में इस पर्व को नारियल पूर्णिमा और श्रावणी दोनों नामों से जाना जाता है | वहाँ भी इस दिन समुद्र के तट पर जाकर स्नानादि से निवृत्त होकर मंत्रोच्चार के साथ यज्ञोपवीत बदलते हैं तथा वरुण देवता को प्रसन्न करने के लिये नारियल से समुद्र की पूजा अर्चना करते हैं | तमिलनाडु, केरल, उड़ीसा तथा अन्य दक्षिण भारतीय प्रदेशों में यह पर्व “अवनि अवित्तम” के नाम से जाना जाता है तथा वहाँ भी नदी अथवा समुद्र के तट पर जाकर स्नानादि के पश्चात् ऋषियों का तर्पण करके नया यज्ञोपवीत धारण किया जाता है | कहने का तात्पर्य यह है की रक्षा बन्धन के साथ साथ इस दिन देश के लगभग सभी प्रान्तों में यज्ञोपवीत धारण करने वाले द्विज लगभग एक ही रूप में उपाकर्म भी करते हैं |
रक्षा बन्धन के सम्बन्ध में अनेक पौराणिक और ऐतिहासिक कथाएँ हम सभी को ज्ञात हैं, जो इस पर्व की लोकप्रियता बताने के लिए काफी हैं | साथ ही इस पर्व के नाम चाहे जो हो, रूप चाहे जैसा भी हो, विधि विधान चाहे जैसे भी हों, चाहे कोई भी भाषा भाषी हों, किन्तु अन्ततोगत्वा इस पर्व को मनाने के पीछे अवधारणा केवल यही है कि लोगों में परस्पर भाईचारा तथा स्नेह प्रेम बना रहे | हम सब ही इस पर्व के साथ जुड़े संस्कारों और जीवन मूल्यों को समझने का प्रयास करेंगे तभी यह पर्व सार्थक होगा और तभी व्यक्ति, परिवार, समाज तथा देश का कल्याण सम्भव होगा |
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