माघ पूस की सर्द रात के ढलते ढलते
कोहरे की चादर में लिपटी धरती / लगती है ऐसी
जैसे
छिपी हो कोई दुल्हनिया परदे में / लजाती, शरमाती
हरीतिमा का वस्त्र धारण किये
मानों प्रतीक्षा कर रही हो / प्रियतम भास्कर के आगमन की
कि सूर्यदेव आते ही समा लेंगे अपनी इस दुल्हनिया को
बाँहों के घेरे में...
पूरी रचना सुनने के लिए कृपया वीडियो पर जाएँ... कात्यायनी...