बेनियंत्रित मीडिया का व्यापक कल्चर एवं आम मानसिकता पर क्या और कैसे प्रभाव पड़ रहा है, यह समझ लेना एक बेहतर विकल्प है। कुछ ऐसे कल्चरल ट्रेंड्स हैं जो विश्व के सभी विकसित व विकासशील देशों के समाज में प्रचलित हो रहे हैं और भारत में भी एक बड़े तबके में, खासकर शहरी मध्य व उच्च-मध्य वर्ग में तेजी से फैल रहा है। मीडिया इन अराजक ट्रेंड्स को बढ़ावा दे रहा है।
पहला खतरनाक सांस्कृतिक चलन है, हर तरह की व्यवस्था के प्रति गहरा आक्रोश एवं उसे पूर्णतः रिजेक्ट करने की जिद। विश्व के सभी विकसित व विकासशील देशों के समाज में आम इंसान अपनी हर समस्या के लिए राजनीति व शासन को जिम्मेदार मानता है और उसके खिलाफ अपने गुस्से का अराजक हो कर इजहार कर रहा है। अपने ही समाज के प्रति इतनी नफरत भर गई है आम इंसान में कि उनमें से हर दूसरा शख्स आसानी से मिलने वाले हथियार उठाकर अपने ही लोगों को निशाना बना रहा है। विश्व ऐसे कल्चर से जूझ रहा है जहां हर इंसान अपनी निजी चाहतों के पूरा न हो पाने के आक्रोश में हिंसा एवं हर तरह के अराजक निजी व्यवहार को जायज ठहरा रहा है।
महान वैज्ञानिक, बुद्धिजीवी व चिंतक सावधान कर रहे हैं - विश्व भर में इंसानी समाज को दो ही यथार्थ से खतरा है - इंसानी मूर्खता व अंधी लालसा-लालच! मूर्खता व लालच, दोनों ही तत्वों को परिभाषित कर सकना बेहद मुश्किल है, मगर ऐसा भी नहीं कि इसे समझा नहीं जा सकता।
विश्व के सभी विकसित व विकासशील देशों के समाज में आज मूर्खता व लालच के मिश्रित मनोदशा व एटीट्यूड को ‘‘सोलिपसिज्म’’ के नाम से जाना जा रहा है। यानि, एक ऐसी सोच व मानसिकता जिसमें ‘‘स्वयं’’ को ही हर सार्थकता एवं सत्यता का केन्द्र मानते हुए स्वयं के अस्तित्व के अलावा किसी भी दूसरी चीज व विचार को न मानना। कई लोग इसे टेक्नालाजी की उपज मानते हैं जो खतरनाक तौर पर ‘‘पर्सनलाईजेशन’’ की अराजक-चाहत के हद तक ले जा रहा है।
इस ‘‘सोलिपसिज्म’’ को और भी खतरनाक बनाता है एक ऐसा कल्चरल ट्रेंड जिसे ‘‘एंटी-इंटेलेक्चुअलिज्म’’ व ‘‘एंटी-रैशनलिज्म’’ की संज्ञा दी गई है। यानि एक ऐसी मनोदशा जिसमें इंसान जो और जितना भी जानता है उसे ही पर्याप्त मानता है और ज्ञान हासिल करने को बेकार मानते हुए जिद करता है कि ज्यादा जानकारी और नाॅलेज दुख, परेशानियों और बेवजह भ्रम का कारण बनता है। वह यह भी मानता है कि दुनिया में कोई भी ज्ञान सही नहीं है, सब एक तरह का भ्रम है। वह बस एक ही यथार्थ व उपयोगिता समझ रहा है, वह है- अनंत उपभोग!
एक अमेरिकी लेखिका, जिन्होने इन खतरनाक मनोदशाओं पर किताब लिखी है, ने एक साक्षात्कार में कहा, ‘‘एक दिन में अमेरिकी समाज की दुर्दशा पर बेहद खफा होकर एक कैफे में काफी पी रही थी तब बगल की टेबल पर दो युवा आपस में, अमेरिका में एक दूसरे को मारने व सड़कों पर लूट लेने की बढ़ती घटनाओं पर बातें करते सुना। एक ने कहा, यह स्थिति बिलकुल पर्ल हार्बर जैसी हो गई है। दूसरे ने पूछा, यह पर्ल हार्बर क्या है। पहले ने गंभीर चेहरा बना कर कहा, जब वियतनामियों ने हम पर हमला कर दिया था और तब हमें उनसे लड़ाई लड़नी पड़ी थी। मैनें वहीं फैसला कर लिया कि मुझे यह किताब लिखनी है।’’
भारत में कमोबेश ऐसी स्थिति बन रही है। एक चैनल ने देश के हर उम्र के कई लोगों से पूछा कि ‘आरटीआई’ क्या है। जो जवाब आये, वे पर्ल हार्बर से भी खतरनाक थे। अमेरिकी तर्ज पर, अपने देश में भी जो सबसे खतरनाक कल्चरल ट्रेंड चल पड़ा है वह है ‘‘आबसेसन फार हैपीनेस एंड फन’’। आज सिर्फ वही ‘‘कूल’’ है जिसमें ‘‘फन’’ है, बाकी सब बेकार है। इस आबसेसन को ‘‘सोलिपसिज्म’’ और एंटी-इंटेलेक्चुअलिज्म के ट्रंेड के साथ मिला दिया जाये तो अराजकता की पूरी स्क्रिप्ट तैयार हो जाती है। अपने देश में इसकी नींव पड़ चुकी है। शायद कुछ ‘बहुमंजिला इमारतें’ भी तैयार होने लगी हैं!
और, अमेरिका की तरह ही, अपने देश में भी इस खतरनाक कल्चर को हवा दे रहा है मीडिया। मीडिया स्वयं ही पेरिफेरल ‘‘सोलिपसिज्म’’ और एंटी-इंटेलेक्चुअलिज्म की शिकार दिखती है। आम इंसान की यही कमजोरी रही है कि वह समस्याओं तथा संभावित समाधानों को ज्यादातर एकपक्षीय होकर देखता है। मीडिया से सर्वदा अपेक्षित है कि वह एक ‘‘एसीमिलेटिव, इंटेगरेटिव एवं होलिस्टिक’’ नजरिया रखे। ऐसा हो नहीं पाता क्यों कि मीडिया अपनी जिद में आवश्यक प्रशिक्षण और ‘इंटेलेक्चुअल सेल्फ रेगुलेशन’ की अहम जरूरत को नकारता रहता है। तंत्र का एक जवाबदेह हिस्सा होने की बात को नकारना मीडिया की ‘‘सोलिपसिज्म’’ और एंटी-इंटेलेक्चुअलिज्म प्रदर्शित करती है।
अमेरिकी विशेशज्ञों का मानना है, समाज और संस्कृति में ‘‘सेलिब्रिटी कल्चर’’ का बहुत ज्यादा दुश्प्रभाव पड़ा है। आम अमेरिकी टीनेजर्स, युवा और आम आदमी भी, चाहे वह सेलीब्रेटीज को कितना भी गालियां दे दें, वे उनकी जीवनशैली की नकल करने में पीछे नहीं। ये सेलीब्रेटीज, हर उस समस्या व यथार्थ से अपने को उपर मानते हैं और उनका बर्ताव, एक तरह से ‘‘सोलिपसिज्म’’ और एंटी-इंटेलेक्चुअलिज्म के अराजक मानक तय करते हैं। मीडिया इन सेलीब्रेटीज की ‘‘हीरो-वर्शिप’’ का एक खतरनाक ‘‘कल्ट’’ पैदा कर चुका है। ‘पापाराजी’ इसी कल्ट की सबसे खतरनाक उपज है।
अपने देश में भी यह सब खूब चल रहा है। टीवी चैनल ही नहीं, प्रिंट मीडिया भी सेलीब्रेटी-कल्चर को भुनाने में लगा है। खतरनाक बात यह है कि इलेक्ट्रानिक मीडिया के एंकर और प्रेजेंटर अपने आप में एक बेहद पावरफुल सेलीब्रेटी बन चुके हैं। आम दर्शक इनके फैन-फालोअर हैं और यही ‘‘नीयो-सेलीब्रेटीज’’ अराजकता के सबसे प्रबल ‘‘पापाराजी’’ हैं। इस आपदा में भी, स्पाट पर रिपोर्ट कर रहे मीडियाकर्मियों ने उतनी अराजकता नहीं फैलायी। इसका ज्यादा दोष स्टूडियो में बैठे ‘सेलीब्रेटीज’ का है।
जरा इसे समझें। पहले अखबारों में एडिटिंग डेस्क होते थे। माना जाता था कि फील्ड से रिपोर्ट करने वाला शख्स चूंकि आवाम से जुड़ा होता है और माहौल से प्रभावित हो सकता है, इसलिए सबएडिटर्स उनकी कापी को कड़ाई से एडिट करते थे। डेस्क सेल्फ-रेगुलेशन का सशक्त औजार था। अब लगभग सभी अखबारों में डेस्क विलुप्त है। रिपोटर्स खुद स्टोरी फाइल करते हैं, खुद ही पेज बनाते हैं और बिना रेगुलेशन के वे छपते हैं। जिलों से भी जो खबरें आती हैं, उन्हें भी कोई एडिट नहीं करता, सिर्फ कुछ बड़ी व्याकरण की गलतियां ही चेक की जाती हैं।
इलेक्ट्रानिक चैनल में स्थिति और भी विकट है। सारा सिस्टम समय के साथ जंग लड़ता होता है। ब्रेकिंग न्यूज और ‘फस्र्ट विथ न्यूज’ की मारामारी में कांटेंट की जिम्मेदारी का पहलू अनदेखा करने की मजबूरी भी है और अब सब कुछ एक ‘एक्सेपटेड-रिचुअल’ हो गया है।
आज की तारीख में जो भारत में हो रहा है, वह नया है। इसके परिणाम अभी दूर हैं। मगर, यह सब कुछ अमेरिका में पिछले 30 सालों में हो चुका है और इनके दुश्परिणामों पर रिसर्च भी हो रहा है। मीडिया की इसमें भूमिका वहां स्थापित हो चुकी है। आज वहां, बड़े अखबारों में लेख छप रहे हैं जिनमें इन मसलों पर लोगों को एडूकेट किया जा रहा है। किताबें लिखी जा रही हैं कि कैसे अमेरिकी कल्चर इन नये खतरों से जूझ रहा है।
अपने देश में अभी भी वक्त है, इन सबसे बच पाने का। अभी भी वक्त है, आज अगर कुछ ठोस पहल हो तो आने वाले संकट से बच पाना संभव दिखता है।