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बदलना आसान काम नहीं: लाइफ का गोलडेन रूल है इवाल्व-अपग्रेड होते रहना, अनलर्न करना...

29 सितम्बर 2017

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शब्दों का अपने-आप में कोई खास महत्व नही। चारों ओर शब्द ही शब्द हैं। मगर, फिर भी उनका किसी पर असर हो, इसके लिए शब्दों की अच्च्छाई और उपयोगिता तभी बन पाती है जब शब्दों को बेहद उम्दा और ढेर सारे प्यार, आस्था और अपनेपन से स्वीकार किया जाए।

शब्द तभी कामयाब और असरदार होते हैं जब उनको सुनने वाले की कहने वाले पर असीम आस्था हो। किसी ने मुझसे कहा कि उनकी बिटिया उनकी बात को सच नही मानती लेकिन अपनी टीचर की हर बात सच मानती है जबकि उसकी टीचर गलत भी होती है और वो अपनी बिटिया की टीचर से बहुत ज्यादा एजुकेटेड व क्वालिफाइड भी हैं। साफ है, बिटिया की आस्था के तार उसकी टीचर से जुड़े हैं क्यूं कि बिटिया के सब-कान्शियस माइंड में ये बात गहरे अंकित है कि सिखाना उसकी टीचर का डूमेन है और उसकी मां का डूमेन कुछ और है।

मैं जो भी शब्द यहां कहने की कोशिश कर रहा हूं या ऐसे भी, कभी किसी को कहा हो, उसका असर अगर कभी नहीं हुआ हो तो ऐसा लगता है कि लाख चाहने पर भी आस्था नहीं बन पाई होगी, वह अपनेपन की फीलिंग लोगों को महसूस नहीं हो सकी होगी। यह कोई शिकायत का सबब नही है, यह माइंड की अपनी लिमिटेशन है, दोष किसी का भी नही...

किसी भी उपज के लिए, किसी भी फसल की आमद के लिए, पहले जमीन तैयार करनी पड़ती है। महान गायक उस्ताद अमीर खान साहब ने कहा कि सुर लगाने से पहले सुर की जमीन तैयार करना बेहद जरूरी है वर्ना बात नहीं बनती। महान गायक भारत रत्न पंडित भीमसेन जोशी साहब ने कहा कि किसी संगीत सभा में गाने के लिए पहले से कोई राग या बंदिश तय नहीं करते थे। संगीत सभा से चंद मिनटों पहले जब वे अपना तानपुरा मिलाते, तब मौजूदा माहौल व मूड के हिसाब से जिस भी सुर की जमीन तैयार होती दिखती, वही राग और उसके अनुसार उसकी बंदिश तय करते। तभी, जब वे गाते, सुरों की जादूगरी सबके सर चढ़ कर बोलता।

ये जानते हुए भी कि मैं निरा मूर्ख हूं, मुझमें इतनी ताब नहीं कि मैं सुर समझ सकूं, फसल की आमद का हुनर जान सकूं, शब्ददारी के राग की कोई बंदिश साध सकूं, फिर भी मैं कह रहा हूं। मेरी किसी बात का कोई असर होगा या नहीं, मैं उसकी ओर सोच भी नहीं रहा, क्यूं कि मुझे अपना गुण तो बिलकुल नहीं दिखता, मगर आप गुणी पाठकों की सहृदयता दिखती है। कहते हैं, जमीन किसी भी बीज की पात्रता नहीं देखती। बस निरपेक्ष भाव से उसे उपजा देती है। इसलिए, आप पाठकों की जमीन पर अपनी मूर्खता की बीज बिखेरते मैं जरा भी घबरा नहीं रहा...

हमेशा ही बात निकलती है कि ऐसा क्यूं है, वैसा क्यूं नही है? इंसान के पास बहुत से सवाल हैं, उसकी वेलनेस को लेकर, गुडनेस को लेकर, क्या सही है क्या गलत है, आदि। सवाल तो हैं और पूछे भी जाते हैं। मगर, जवाब नही मिलता, जबकि हर इंसान के पास अपना एक जवाब होता ही है।

कुछ बातें बेहद जरूरी दिखती हैं, अगर हम एक्सेप्ट कर पायें तब। कहते हैं, सवाल को उसकी पूर्णता में समझना उतना ही जरूरी है जितना सही व पूर्ण जवाब पाना। अमूमन, सवाल की आमद ही पूर्णतः समझ नही पाते हम सब। कोई भी सवाल करने से पहले और कोई भी जवाब देने से पहले तीन बातें जरूर आब्जेक्टिव्ली, रैशनली, होलिस्टिकली और मल्टी-डाइमेन्सनल अप्रोच से समझ लेना जरूरी दिखता है-

1. इंसान का अपना एग्जिस्टेन्स क्या है? हम हैं क्या? हमारा वजूद क्या है? हमारा बाडी-माइंड मेकअप ओर फंक्सनल मेकेनिजम क्या है?

2. हमारा और सभी जीवों का इस यूनिवर्स से रिलेशनशिप क्या है? सब कुछ एक काउजल सिचुएश्नैलिटी है, यानि कारण-परिणाम की श्रृंख्ला है। एक चेन है काउज-इफेक्ट का। इंसान और कासमोस का यह काउजल रिलेशनशिप क्या है? यानि, क्या होता है तो क्या हो पाता है या नहीं हो पाता और क्या नहीं होता है तो क्या नहीं हो पाता या हो पाता है?

3. अरबों सालों का कासमिक और ह्यूमन इवोल्यूशन क्या है? इस इवोल्यूशन की एनर्जी क्या है? जो हुआ वो क्यूं और कैसे हुआ? और जो होना है वो क्यूं व कैसे होना है?

स्वभाविक है, सब कहेंगे, एक आम आदमी के बस मैं नहीं है इन सारे सवालों को समझना और फिर जवाब समझ पाना। ठीक है, तो फिर सोचिए कि आसान क्या है? और अगर आसान होता तो ये सवाल-जवाब की दुविधा ही क्यूं होती? बहुत मेहनत की जरूरत होगी, ये तय है। मगर, कौन सा वह काम आसान होता है जो मीनिंगफुल होता है? एक अदद अच्छी नौकरी पाने के लिए 25 साल लगते हैं फिर भी शायद... मगर जीवन के सवाल समझने के लिए...?

इन सारे सवालों को समझने के लिए, हम सभी को पीढ़ियों से, रिलिजन, फिलासफी और लिटरेचर पढ़ाया जाता रहा है। ठीक है, इसे भी पढ़ें और समझें। मगर, थोड़ा सा यह भी पढ़ें कि साइन्स ने जो पिच्छले 15-20 सालों मैं सवालों को समझा है और उनके जवाब दिए हैं। ह्युमैनिटी की समस्या ही यही है कि हम कुछ थोड़ा-बहुत समझ लेते हैं और खुद को बड़ा विद्वान समझ कर अपने दिमाग के सारे दरवाजे बंद कर लेते हैं। तो पहली पहल यह है कि खुद को पहले मूर्ख मान लें हम...

विस्डम के लिए जरूरी शर्त है हर चीज का एक्सेप्टेन्स, यानि स्वीकार्यता। और फिर यथार्थ के हर पहलु का एक फाइन बैलेन्स। इस यूनिवर्स के इवोल्यूशन को जब समझेंगे तब जान पाऐंगे कि कोई भी चीज अपने आप में अच्छी या बुरी नहीं है। सब कुछ एक काउज-इफेक्ट चेन से बंधा है। इसलिए, यह समझा जा सकता है कि सही होना है आब्जेक्टिव और बैलेन्स्ड होना और गलत होना है सब्जेक्टिव होकर पार्शियल हो जाना।

उदाहरण के तौर पर, वेटरेन एक्टर, राजकुमार साहब कैंसर से पीड़ित हो कर जीवन से स्ट्रगल कर रहे थे, मगर बेहद ग्रेसफुली। किसी ने आत्मीयता दिखाते हुए कहा कि ईश्वर का भी क्या न्याय है, कैंसर आपको ही होना था? राजकुमार साहब ने अपनी चिरपरिचित खुशमिजाजी में जवाब दिया, तुम्हे क्या लगता है कि मैं जुखाम से मरने वाला इंसान हूं, मुझे तो कैंसर ही होना था। कुछ लोगों के लिये यह प्राइड हो सकता है जो इंसान के लिए बुरा माना जाता है। मगर, उस परिस्थिति में राजकुमार साहब के लिए ये प्राइड अच्छा था क्यूं कि मरना तो था ही, तो क्यूं ना तथाकथित प्राइड का सहारा लेकर सम्मान व सुकून में मरें! वेलनेस का एक यही रास्ता बचा भी था शायद! इसमें किसी का कोई नुकसान भी नही था। कभी भी, किसी भी चीज की यूटिलिटी या सार्थकता को लेकर ना एक तरफा जज्मेंट दें ना ही उसको लेकर डागमैटिक हो जायें। हम सब लोग, हर रोज चीजें बदलते हैं। टेक्नालजी आबसोलीट हो जाए या टेक्नालजी अपग्रेड हो जाए तो मोबाइल फोन और गाड़ियां बदल लेते हैं। मगर, अपना आबसोलीट माइंड और आबसोलीट वैचारिकता व मान्यताएं नही बदलना चाहते, ना ही उसको अपग्रेड करने को तैयार होते हैं।

तमाम साइंटिफिक व टेक्नालाजिकल गैजेट्स इस्तेमाल कर के अपने लाइफ को बेहतर और आरामदायक बनाते हैं। साइन्स का हमारे वेलनेस में बड़ा योगदान है मगर अपनी लाइफ में, अपनी सोच मैं, अपने आइडियास और आइडियालजीस मैं जरा बहुत सारा साइंटिफिक टेंपर नही लाना चाहते। यह स्वीकार्यता नहीं आ पाती। यहां तक कि हमें पता भी नहीं होता की हर फील्ड में साइन्स ने खुद को ही कितना अपग्रेड किया है और लगातार कई सवालों को समझ कर साइन्स अपग्रेडेड जवाब भी दे रहा है। हम सब लोग इनर्सिया को ही सबसे बड़ा वेलनेस मान बैठे हैं। यही हमारे वेलनेस का सबसे बड़ा दुश्मन है।

देखिए, किसी ने कहा, इंसान को वही करना चाहिए जिसे उसका दिल सही समझता है। ज्यादातर लोग इसी फिलासफी को प्रैक्टिकल आपरेटिव इंटेलिजेन्स मान कर वही करते हैं। ये आइडिया इंडिविजुयल और सोसाइटल वेलनेस का सबसे सुसाइडल डाग्मा है। याद कीजिए, दुर्योधन भी वही कर रहा था जो वो सही समझ रहा था। और अंत तक वही करता रहा! हम सब लोग यही कर रहे हैं। एक ऐसा जहर बो रहे हैं जो हमारे अरबों सालों के इवोल्यूशन को नीगेट कर रहा है, नकार रहा है। यह अगेन्स्ट इवोल्यूशन विस्डम है जिसे हम सब अपना फेवरिट पर्सनल विस्डम मान बैठे हैं।

तो, यह तो तय ही दिखता है कि मेहनत बहुत करनी पड़ेगी। आसान नहीं है लाइफ के सवालों को समझना और फिर जवाब समझ पाना। हम सब लोग बहुत फार्चुनेट हैं कि टेक्नालजी ने आज राहें काफी आसान कर दी हैं। इंटरनेट बहुत बड़ा रिवोल्यूशन है। दुनिया भर में बहुत कुछ अपग्रेड हो रहा है, बहुत तेजी से इवोल्व हो रहा है। हम सब लोग जो लाखों सालों से समझते और सच मानते आ रहे थे, वो सब आज नयी परिभाषा व समझ के दायरे में आ गया है। बेहद उम्दा बात यह है कि इंटरनेट पर सब अवेलेबल है, वह भी ज्यादातर बिलकुल मुफ्त!

अब हम अगर हजारों सालों पुराना आबसोलीट विस्डम माडेल ही जीना चाहें तो हमें कौन रोक लेगा। लिबर्टी सबकी है, सब कहते ही हैं, जो मैं ठीक और सही समझता हूं वही मेरे लिए सत्य और सही है। किस को कोई समझा भी नही सकता कि जो हम सही समझ रहे हैं वो कितना गलत है। यह तो व्यक्तिगत आस्था का प्रश्न है। गलत इसलिए है कि हमने उसको अपग्रेड नही किया है और करना भी नही चाहते क्यूं कि उसी को सही मान लेने की जिद जो है।

बेहद आबजेक्टिविटी व ईमानदारी से देखा जाये तो सारा दोष हमारा भी नहीं है। बचपन से ही हमें 150 साल पुरानी शिक्षा पद्धति से पढ़ाया गया है। परिवार वालों और बुजुर्गों ने भी पुराने और अब तक करप्ट व आबसोलीट हो चुके विस्डम को हमारे माइंड मैं डालते रहे हैं। और हम खुद इतने असुरक्षित और डरे हुए लोग हैं कि नयी और नान-कन्फार्मिस्ट नालेज के प्रति एक क्लोस्ड डोर अप्रोच रखे हुए हैं।

जब तक हम यह नही मानेंगे कि इंसानों के कलेक्टिव नालेज बेस और विस्डम स्ट्रक्चर को नये साइंटिफिक और आब्जेक्टिव विस्डम के लाइट में अपग्रेड और रिस्ट्रक्चर करने की जरूरत है तब तक हम सब उन्ही आबसोलीट सवालों और आन्सर-क्राइसिस से जूझते रहेंगे। और चूंकि ऐसा करना अब इंसानी इंटेलेक्च्यूअलिजम का पापुलर बेंचमार्क बन चुका है, इसलिए ऐसा करने में हमें बहुत सुख और सुकून भी मिलता है। बदलना कोई आसान काम कभी भी नहीं होता...

ये दिखता भी है, हम सब लोग ह्यूमन सिविलाइजेशन के एक बेहद क्रिटिकल फेज से गुजर रहे हैं। आज से 200 सालों के बाद शायद कुछ और बेहतर तस्वीर होगी। हमारा आने वाला जेनरेशन हमसे ज्यादा कान्फ्लिक्ट्स और कन्फ्यूजन झेलेगा और तब थक-हार कर उसको नये विस्डम को एक्सेप्ट करना ही होगा। हमारा अभी का वर्तमान नया जेनरेशन अभी क्रासरोड्स पर है। पुरानी छूटती नहीं, नये पर ना भरोसा बन पा रहा है ना ही सही नालेज है। सभी रिएक्सनरी इन्ट्यूटिवनेस को, यानि प्रतिक्रियावादी अवचेतन को विस्डम मान कर खुद को अच्छा व सही और दूसरों को बुरा व गलत समझ कर खुश हो रहे हैं। यह एक तरह का ग्लोबल इंसानी प्राईड है जो लगभग हर संस्कृति में प्रबल प्रवाह है।

अगर हम सब जिद छोड़ें, विस्डम के बैलेन्स्ड व होलिस्टिक अप्रोच को समझें और स्वीकार करें कि लाइफ का गोलडेन रूल है इवाल्व होते व करते रहना, खुद को अपग्रेड करने के लिए पुरानी सोच को अनलर्न करना, तो राहें आसान होंगी। और ये तभी होता है जब इंसान ओपन हो, चेंजेस को एक्सेप्ट करे और खुद की इन्ट्यूटिव सब्जेकटिविटी की जिद से ऊपर उठ कर मूल सवालों को समझें। बाकी अपने आप आसान होता जाएगा...

बहुत पुरानी कहानी है, तीन अंधे एक हाथी को हाथ से टटोल कर आपस में लड़ रहे थे। एक ने पूंछ छुआ और कहा ये एक पूंछ है। दूसरे ने सूंढ़ और तीसरे ने कान छुआ। सब की ये जिद थी कि जो वह महसूस कर रहा है वही सही है, बाकी सब गलत हैं। और सत्य अलग-अलग था। कोई भी आंख वाला इंसान देख पाता कि वो सब एक ही सत्य, यानी हाथी के विभिन्न अंगों के डिफरेंट पर्सेपशन्स को लेकर आपस में अपने-अपने व्यक्तिगत सत्य को ही सही समझ कर लड़ रहे हैं। सत्य तो एक ही है, यथार्थ तो सिंगुलर है, हां यथार्थबोध की भिन्नता से विवाद व द्वंद्व है, जिससे टकराव है। यही सवालों की एकलता, सिंगुलैरिटी को मानने-समझने में सबसे बड़ी बाधा है। इसलिए तो एकल व सिंगुलर जवाब के प्रति एकमतता नहीं बन पाती। इसे ही तो मानना-समझना है, और क्या है...


#Excerpts from author’s eBook, यूं ही बेसबब.

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भारत का सांस्कृतिक विकास: जरूरत आत्म-अन्वेषण की- एक मासूम सी किताब

11 जून 2016
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एक बेहद मासूम सी गुफतगूं की आरजू, शब्दों की सतरंगी पोशाक पहनने की जिद ठाने बैठी थी। मैंने उसे डराया भी कि शब्दों से संवाद की बदगुमानी अच्छी नहीं। पर जिद के आगे झुकना पड़ा। आपसे गुजारिश और यह उम्मीद भी कि आपकी स्वीकृति उसी प्रेम व करुणा के भावों में मिलेगी, जिस भाव में अभिव्यक्ति की अल्हड़ सी कोशिश है।

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इसके साधे सब सधे, मगर इस साधना का औचित्य तो स्वीकार्य हो!

20 जून 2016
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सबके पास अपने-अपने प्रश्न होते हैं। फिर, युवाओं केपास तो और भी ढेर सारे प्रश्न होते हैं - जीवन से संबंधित, प्रेम से संबंधित! चेतना केबनते ही, उसके समृद्ध होते ही जो चीज सबसे पहले समझ आती है वह है कि यह संसार बेहद विशाल है और इसमें ज्यादातर स्थितियां अपने आप में प्रश्न ही हैं। ऐसा इसलिए कि हमारे चारो

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‘सोलिपसिज्म’, ‘एंटी-इंटेलेक्चुअलिज्म’, ‘एंटी-रैशनलिज्म’ - ‘स्वयं’ की सार्थकता एवं सत्यता की आत्मघाती जिद...!

2 जुलाई 2016
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बेनियंत्रित मीडिया का व्यापक कल्चर एवं आम मानसिकता पर क्या और कैसे प्रभाव पड़ रहा है, यह समझ लेना एक बेहतर विकल्प है। कुछ ऐसे कल्चरल ट्रेंड्स हैं जो विश्व के सभी विकसित व विकासशील देशों के समाज में प्रचलित हो रहे हैं और भारत में भी एक बड़े तबके में, खासकर शहरी मध्य व उच्च-मध्य वर्ग में तेजी से फैल रहा

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यूं ही बेसबब

13 मई 2017
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यह एक बंदिश है, शब्ददारी की अल्हड़ रागदारी है, सात-सुरों के तयशुदा श्रुतियों की ख्याल परंपरा से अल्हदा आवारगी का नाद स्वर है, गढ़े हुए बासबब लफ्जों से इतर स्वतः-स्फूर्तता का बेसबब बहाव है, ठुमरिया ठाठ की लयकारी के सहेजपनें से जुदा सहज-सरल-सुग

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ठहराव

21 जुलाई 2017
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ऐसा तो हो नहीं सकता...

26 जुलाई 2017
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जब इश्क हुआ,करुणा व क्षमा न हो,ऐसा हो नहीं सकता। ... सबसे पहले प्रेम इंसान खुद से ही करता है, खुद को ही माफ करने की जुगत में रहता है... प्रेम जब यह सिखा दे कि, मैं इतना विस्तारित है, उसका अंश सब में है, फिर, अपने ‘अंशों’ से करुणा न हो! ऐसा हो नहीं सकता...! इसलिए ही इश्क म

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सार्थक सुख बोध...

27 जुलाई 2017
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यकीनन, कमाल करती हो...

31 जुलाई 2017
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तुम जो भी हो,जैसे हुआ करती हो,जिसकी जिद करती हो,वजूद से जूझती फिरती हो,अपने सही होने से ज्यादाउनके गलत होने की बेवजह,नारेबाजियां बुलंद करती हो,क्या चाहिये से ज्यादा,क्या नहीं होना चाहिए,की वकालत करती फिरती हो,अपनी जमीन बुलंद भी हो मगर,उनके महलों को मिटा देने की,नीम-आरजूएं आबाद रखती हो,मंजिलों की मुर

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वजूद का तमाशा

1 अगस्त 2017
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हस्ती का शोर तो है मगर, एतबार क्या,झूठी खबर किसी की उड़ाई हुई सी है...वजूद अपना खुद ही एक तमाशा है,और अब नजरे-दुनिया भी तमाशाई है...जिंदगी के रंगमंच की रवायत ही देखिए,दीद अंधेरे में, उजाले अदायगी को नसीब है...जवाब भी ढूंढ़ते है सवालों के

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जब वो नहीं होता

2 अगस्त 2017
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मिर्जा तुम्हारी याद बहुत आती है...चले तो गये तुम पर जो तुमपे गुजरी,वह अब भी, मेरा भी दिल दुखाती है...वही हरेक बात पे कहना कि तू क्या है,तुम तो कह भी देते थे, हमसे नहीं होता,कि अंदाजे-गुफतगूं की जिद कहां से आती है।कहते हैं कि मरने के वक्त मल्हार गाते हो?समझते नहीं, आखीरियत को आह्लाद लुभाती है...चलते

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जीवन को, अपनी चेतना को, टुकड़ों में ना बांटें....

3 अगस्त 2017
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जैसी चेतना, वैसा बोधत्व और वैसी ही आपकी नीयति

3 अगस्त 2017
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अपनी ही चेतना के खंडित एवं विकृत बोधत्व के कारण, इंसान की नीयति कभी भी उसको वह मुकाम नहीं हासिल करने देती, जिसका व हकदार भले ही न हो, पर उसमें उसे पाने का माद्दा होता है। इसलिए कि सीमित व अविकसित बोधत्व उसे वह देखने ही नहीं देती, जो वहां होता है। तुर्रा यह कि जो मिट्टी व कौड़ी वह उठा लाता है, उसे बड़े

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मुझे फिक्र है तुम्हारी

4 अगस्त 2017
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उसको, चाहिये भी क्या था, मुझसे,क्या था ऐसा, जो नहीं था, पास उसके,मुझमें था भी क्या कि दे सकूं उसको,पा कर, मिल भी जाता क्या ऐसा कुछ,ना दे सकूं ऐसी जिद भी कहां थी मेरी,फिर यह लेन-देन की आरजू थी भी कहां,यह तो फितूर है कि रिश्तों के दरमियां,होते हैं बाहम, कारोबारी तोलमोल के दस्तूर,वह चाहता भी कहां था कि

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कबीर की ‘खुरपी’

5 अगस्त 2017
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आंखों देखी ‘हकीकत’ का मुगालता,सबको है, इसलिए झूठ हकीकत है।पाखंड है वजूद की जमीन की फसल,जमींदार होने का मिजाज सबमें है।खुदी की जात से कोई वास्ता ही नहीं,मसलों पे दखल की जिद मगर सबको है।अंधेरे में कुछ नहीं बस भूत दिखता है,टटोलकर खुदा देख पाने की आदत है।अपना वजूद ही टुकड़ों में तकसीम है,सच को बांटने की

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चुप न रहो, कहते रहो...

7 अगस्त 2017
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मुझसे कहता है वो,क्या कहा, फिर से कहो,हम नहीं सुनते तेरी...चुप न रहो, कहते रहो,सुकूं है, अच्छा लगता है,पर जिद न करो सुनाने की...तुम्हारे साथ भी तन्हा हूं,तुम तो न समझोगे मगर,साथ रहो, चुप न रहो, कहते रहो...कठिन तो है यह राहगुजर,शजर का कोई साया भी नहीं,थोड़ी दूर मगर साथ चलो...भीड़ बहुत है, लोग कातिल हैं

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दस्ते दुआ

8 अगस्त 2017
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गली में कुत्ते बहुत भोंकते हैं,बाजार में कोई हाथी भी नहीं...शोर का कुलजमा मसला क्या है,कुछ मुकम्मल पता भी नहीं...चीखना भी शायद कोई मर्ज हो,चारागर को इसकी इत्तला भी नहीं...मता-ए-कूचा कब का लुट चुका है,शहर के लुच्चों को भरोसा ही नहीं...दो घड़ी बैठ कर रास्ता कोई निकले,मर्दानगी को ये हुनर आता ही नहीं...य

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गुफतगूं ठुमरी सा बयां चाहती हैं...

10 अगस्त 2017
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आवारगी भी कभी सोशलिस्ट हुआ करती थी...

10 अगस्त 2017
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चेतनाएं आवारा हो चली हैं,शब्द तो कंगाल हुए जाते हैं...लम्हों को इश्के-आफताब नसीब नहीं,खुशबु-ए-बज्म में वो जायका भी नहीं,मंटो मर गया तो तांगेवाला उदास हुआ,शहरों में अब ऐसे कोई वजहात् नहीं...!तकल्लुफ तलाक पा चुकी अख़लाक से,बेपर्दा तहजीब को यारों की कमी भी नहीं...।आवारगी भी कभी सोशलिस्ट हुआ करती थी,मनच

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दुख जैसा है, तभी अपना है

11 अगस्त 2017
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तेरा मिलना बहुत अच्च्छा लगे है, कि तू मुझको मेरे दुख जैसा लगे है...ये चर्चा, किसी के हुस्न की नही है। ना ये बयान है किसी के संग आसनाई के लुत्फ की। सीधे-सहज-सरल लफ्जों में यह तरजुमा है एक सत्य का। सच्चाई यह कि अपनापन और सोहबत की हदे-तकमील क्या है।अपना क्या है? कौन है?... वही जो अपने दुख जैसा है! मतलब

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बिना निष्कर्ष की कहानी....

13 अगस्त 2017
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नेमतें बाहम रहें...

19 अगस्त 2017
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ऐसी कोई ख्वाहिश न थी,न ही इम्कां रखते थे कोई,कि वो समझेंगे जो कहेंगे हम।मुख्तसर सी ये गुजारिश कि,बैठें, रूबरू रहें, संग चलें,कि हमसायगी की कोई शक्ल बने।आसनाई मंसूब हो, फिर ये होगा,दरमियां कुछ सुर साझा हो चलेंगे,राग मुक्तिलिफ होंगे, लुत्फ का एका होगा।फर्क है भी नहीं

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गलत है यह रवायत

23 अगस्त 2017
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तेरी मुबहम दावेदारियां, सबब हैं,मेरी आदतन खुशगवारियों का,तूं जो यूं, करके जुल्फें परीशां,तूफां को दावते-जुनूं देती हो,अल्फाजों के सितारे बिखेर कर,कहकशां को बटुए में सहेज लेती हो,खूब दिखती हो, अच्छी लगती हो...।किसको गरज है खुलूस की आम

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एक अदद कानून चाहिए...

24 अगस्त 2017
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एक अदद कानून चाहिए,पर इस गुजारिश के साथ,कि शक्ल उसकी जैसी भी हो,अपाहिज न हो, बहरी न हो...एक अदद कानून चाहिए,कि मूर्खताएं कैसी भी हों,मजबूरी, या फिर जानकर भी,कोई फायदा न उठाये उसका...एक अदद कानून चाहिए कि,बेबसी में गर लड़खड़ाये कोई,सहारा न भी हो, कोई बात नहीं,लंगड़ी न म

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दोनों ही पेशेवर हैं...

27 अगस्त 2017
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जो हो, उसे न देख पाना,जो न हो, उसे देख पाना,दोनों ही मर्ज हैं मिजाज के,दोनों ही पहलू हैं यथार्थ के,एक को मूर्खता समझते हैं,दूजे को गर्व से विद्वता कहते हैं,नफा-नुकसान दोनों में बराबर है,नाजो-अंदाज में दोनों ही पेशेवर हैं,जरूरत दोनों की ही है समाज को,नशा अजीज है दोनों ही मिजाज कोदोनों जो एक-दूजे से उ

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नौकरी...

5 सितम्बर 2017
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उन्होंने ताकीद की,बड़े गुस्से में कहा,देखो, इतना समझो,जो मुझे चाहिए,आदमी सौ टका हो,ठोका-बजाया हो,सिखाना न पड़े,आये और चल पड़े,काम बस काम करे...समय की न सोचे,घर को भूल आये,मल्टीटास्कर तो हो ही,ओवरवर्क को सलाम करे,प्रेशर हैंडल कर सके,पीपुल-फ्रेंडली तो हो ही,डेडलाईन की समझ

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कोई चूक ना होने पाए: शब्द संभार बोलिए...!

10 सितम्बर 2017
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इस कला के दायरे के बाहर कोई नहीं, न चेतना, न यथार्थ, न ही ईश्वर

12 सितम्बर 2017
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जिंदगी का बेहतर सिला...

12 सितम्बर 2017
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कहने वाले कह रहे हैं, सुनना कोई चाहता नहीं,‘मैं’ का मिजाज है ऐसा, परे कुछ दिखता नहीं...अपने विचार क्या, तर्क क्या, ‘मैं’ ही मिथ्या है,वजूद के कमरे से मगर कोई निकलता ही नहीं...सत्य, यथार्थ की मिल्कियत विरासत में नहीं मिलती,पराक्रम के पौरुष को मगर रणभूमि भाता ही नहीं...ईश्वर को, जीवन को समझने की जिद ल

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क्यूं सहम जाते हैं...?

14 सितम्बर 2017
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सबके अपने-अपने तयशुदा सांचे होते हैं,इश्क भी सांचों की खांचों में फंसे होते हैं।मां-बाप, भाई-बहन, जोरू-सैंयां सब सांचे हैं,आप अच्छे जब सबके सांचों में ठले होते हैं।प्रेम, रूप-स्वरूप की आकृति से परे बेवा है,हम तो ईश्वर को भी पत्थरों में कैद रखते हैं।सफलता-विफलता के भी सरगम तय छोड़े हैं,रिश्तों की रागद

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कायनात खरीद लाया...

14 सितम्बर 2017
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चरागों में तुझको ढूंढा, खुशबुओं में तुझको पाया,पता तेरा मालूम न था, तभी तो यह लुत्फ पाया।पिछली गली में साया कोई अंधेरे में गुनगुनाता था,तेरे लिए जो खरीदी थी पाजेब, मैं उसको दे आया।पगली ही थी, चीथरों में लिपटी दुआएं बांट रही थी,मेरी कोट में पड़ा गुलाब मैं उसके पल्लू में बांध आया।भुट्टे बेचती बुढ़िया न

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तकिया

15 सितम्बर 2017
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कुछ बेसबब, अल्हड़ से ख्वाब,चश्मे-तर में कहां होते हैं,तकिये के नीचे दबे होते हैं...।दबे पांव निकल कर, संभल कर,आपकी ठुड्डी सहला जाते हैं...आलमें-इम्कां का एतबार न टूटे,इस कर थपकियों से जगा जाते हैं...होने को जहां में क्या नहीं होता,पर ये ख्वाब मुकम्मल नहीं होता,फिर भी, तकिया किसके पास नहीं होता...!

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ये धुआं कहां से उठता है...

17 सितम्बर 2017
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जुड़ सकूं, ऐसा कोई गुर तलाशती हूं,सन्नाटों के बिंदास सुर तलाशती हूं...हूं भी या माजी की शादाब मुहर भर हूं,किससे पूछूं, उसको अक्सर पुकारती हूं...रोने के सुकूं से जब घुट जाती हैं सांसें,मुस्कुराहट का अदद दस्तूर तलाशती हूं...फलक-ओ-जमीं से फुर्कत का सबब लेती हूं,लिपट के उससे रोने के बहाने तलाशती हूं...खु

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पहले कौन उठता है...

17 सितम्बर 2017
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कुछ वक्त गये, दुपैसियल बाजार से फनां हो गये... फिर तीन, पांच, दस और बीसपैसियल भी साथ हो लिए,चवन्नी की बिसात क्या, अब अठन्नी भी पाकिट छोड़ गये, न जाने कितने, ताबो-बिसात वाले यूं ही बेखास हो गये।इसी दुपैसियल से तिलंगी, लेमचूस और खट्टा पाचक जुटाये थे... बामुश्किल जुगाड़े थे दसपैसियल तो भाई संग फुलप्लेट

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बेनूर जिंदगियां इसी को तरसे हैं...

19 सितम्बर 2017
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रंग बरसे...आदतन... इरादतन... फितरतन!... या फिर, यूं ही ... बेसबब... ... गैरइंतखाबी सुर बरसे,नामुकम्मल मेहरबानियां भी,आंधियां भी रंगो-शबाब से बरसीं,अरमानों के रंग तो बहुत थे मगर,सूखी हथेलियों से पूछिये क्यूं नहीं बरसीं! ... मासूमियत पिस के जो हिना हुईंतो आसनाई बदरंग हो गयीं...फिर खुसूशियत स्याह हो चल

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इतना भी क्या कम है?

21 सितम्बर 2017
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सबको पता है, सीधी उंगली से घी नहीं निकलता... इसलिए, उंगली टेढ़ी करने में लोग वक्त नहीं लगाते...! बुद्धिमान-चालाक-सुगढ़ होने में देर ही कितनी लगती है, अमूमन पता भी नहीं चलता उंगली कब टेढ़ी हो गई...सीधा-सहज-सरल-सुगम होने में वक्त लगता है... सहजता-सरलता को बचा कर, सहेज कर रखने में वक्त लगता है... पर भाई ज

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हमनें तो नहीं बनाया...!

21 सितम्बर 2017
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वो खौफ का सरमाया,हमनें तो नहीं बनाया...लोगों ने ही सिखलाया,डर में भी फर्क बतलाया,जिसके जी में जो आया,सबने खौफ का इल्म पढ़ाया...मजहब, फिर खुदा से डराया,प्रेम ने लुभाया, तो डराया,जात-पात, धर्म समझाया,भलाई की कीमत तुलवाया,चतुराई का मर्म बतलाया,जी फिर भी न भर पाया,जन्नत और दोजख बनाया...ये क्यूं कर नहीं ब

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चावल से कंकड़ निकाला कीजिये...

23 सितम्बर 2017
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बेदिली महफिले-जानां से रफ्ता-रफ्ता कीजिये,इससे पहले सर चले, खुद को चलता कीजिये।आये हैं तो रख लीजिये जामो-साकी की कदर,पर होश तारी ही रहे, घर की हिफाजत कीजिये।चार रोजा जिंदगी और सद हजारां इश्तियाक,अब भी कुछ बिगड़ा नहीं होशे-तमन्ना कीजिये।किसका जूता किसके सर क्या करेंगे ज

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उसको कहां भुला पाया हूं...

24 सितम्बर 2017
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मैं तो कब से खामोश ही हूंवजूद भी अपना सुकूं में ही हैदिल बाइज्जत इख्तियार में है...लम्हों से कोई पुरानी रंजिश भी नहींजमाने से वायस ओ गरज भी नहींसरेबाजार तो हूं पर खरीदार भी नहीं...फिर भी क्यूं ये लफ्ज बोलते हैंमेरी औाकत मेरे सामने तौलते हैंनिचोड़कर रगों को क्या टटोलते हैं...पिछली गलियां कब की बेसदा ह

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सुरों की मुकम्मलियत...!

24 सितम्बर 2017
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हमारे एक चचा जान हमारी रोज बढ़ती औकात से हमेशा दो मुट्ठी ज्यादा ही रहे। इसलिए, भले ही कई मुद्दों पर उनसे हमारी मुखालफत रही पर उनकी बात का वजन हमने हमेशा ही सोलहो आने सच ही रक्खा।वो हमेशा कहते, जो भी करो, सुर में करो, बेसुरापन इंसानियत का सबसे बड़ा गुनाह है। लोग गरीब इसल

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चवन्नी से अठन्नी का प्रबंधन सीखिये...

26 सितम्बर 2017
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सब मिथ्या है, कहता तो हर कोई है,नश्वर है हर यथार्थ, जानते सभी हैं,झलावा है जो होने जैसा दिखता है,माया है जिसने सबको भरमाया है...अपना तो खुद का वजूद भी नहींगोया सोच भी अपनी मिल्कियत नहीं,‘मैं’ का उन्माद मूर्खता की नुमाइश है,चैरासी लाख जन्मों का यही सरमाया है...?जब सब ‘शून्य’ है तब यह हाल है,इंसान किस

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कुछ करें या ना करें, ये ना करें...

28 सितम्बर 2017
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क्यूं पूछते रहते हो, बेहाल हुए फिरते हो,कि ‘तू’ कहां है, है भी या नहींये क्यूं नहीं पूछते,आखिर क्यूं हैहोने, न होने कायह बेवजह सा सवाल,बदगुमानी का मलाल...उम्र भर तो मिला नहीं,‘उस पार’ का भरोसा,फिर भी क्यूं गया नहीं,किये जतन क्या-क्या न,सुराग कोई मिला नहीं,छोड़ी कोई कसर नहीं,अपनी तो घटती रही,उम्रे-आरज

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बदलना आसान काम नहीं: लाइफ का गोलडेन रूल है इवाल्व-अपग्रेड होते रहना, अनलर्न करना...

29 सितम्बर 2017
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शब्दों का अपने-आप में कोई खास महत्व नही। चारों ओर शब्द ही शब्द हैं। मगर, फिर भी उनका किसी पर असर हो, इसके लिए शब्दों की अच्च्छाई और उपयोगिता तभी बन पाती है जब शब्दों को बेहद उम्दा और ढेर सारे प्यार, आस्था और अपनेपन से स्वीकार किया जाए।शब्द तभी कामयाब और असरदार होते हैं जब उनको सुनने वाले की कहने वाल

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सत्य झुक कर सलाम करता है...

1 अक्टूबर 2017
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इंसानियत की यह सीधी जीवन-रेखा,तन के चलती है, स्वबोध के अहंकार में,झुकती नहीं, अकड़न उसकी छूटती नहीं...उसको झुकाता है कोई, रास्ता दिखाता है,अच्छाई-सच्चाई से परिचय कराता है,झुक कर आशीष लेना सिखलाता है,करुणा के संगीत का सुर-ताल बतलाता है,कोई है जिसे रुख मोड़ने का हुनर आता है...यही है वो जिससे खुदा भी डर

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अवलम्ब

1 अक्टूबर 2017
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अष्टमी का दिन... सुबह के नौ-सवा नौ का वक्त... वो मिली मुझे...!अम्मा को पूजा के फूल चाहिये थे सो सीधा पड़ोस के मंदिर पहुंचा।पहले भी तो कई दफे आ चुका हूं मगर वो पहली बार दिखी मुझे...तिबत्ती थी वो... छोटी सी... बहुत संुदर... देवतुल्य...!उजले सफेद बाल, लाल रंग की मुड़ी-तुड़ी पोशाक... बामुश्किल उसकी छोटी-छो

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उसको पर्दानशीं ही रहने दें...

7 अक्टूबर 2017
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लुत्फ कुछ बेनकाब हों,कोई बात नहीं, होने दें,चाहतें हया से उठ जायें,चलिये, होती हैं, होने दें,मिज़ाज़ को क्या जे़ब आये,कौन जाने, होती है, होने दें,चालाकी जवां होके इठलाये,रवानी है, होता है, बहकने दें,गुस्सा आग है, सबा भी है ही,राख सुलगती है, खैर, सुलगने दें,दीद को अंधेरे से कब ईश्क रहा,उजालों को आदतन भ

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... ताकि, हर ताजमहल अपूर्व-अनुपम बने...!

8 अक्टूबर 2017
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एक कहानी है, शायद आप सबको पता हो। बादशाह शाहजहां ताजमहल बनवाने को लेकर बेहद इमोशनल थे और उनके पास अथाह पैसा था इसलिए वे चाहते थे कि ताजमहल रातों-रात बन कर तैयार हो जाये। उनका जो मुख्य कारीगर था, उसने ताजमहल की जमीं तैयार कर ली और बादशाह से कहा कि उसे दो दिन के लिए अपने घर जाने की छुट्टी चाहिये। शाहज

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अहम् ब्रह्मास्मि...

11 अक्टूबर 2017
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मेरा ईश्वर, मेरे सामने खड़ा,मेरा ही विराट रूप तो है,मेरी अपनी ही क्षमताओं के,क्षितिज के उस पार खड़ा, खुद मैं ही ‘परमात्मा’ तो हूं,... अहम् ब्रह्मास्मि, इति सत्यम,मैं अपनी ही राह का मंजिल,अपनी संभावनाओं का भक्त,पूर्णता की ईश्वरता का आध्य,मैं ही साधन, मैं ही साध्य,मैं ही पूजा, मैं आराधन,मैं स्वयं अपना

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अब छोड़ दिया...!

11 अक्टूबर 2017
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बहुत साल पहले, एक फिल्म त्रिशूल देख कर आए मेरे चचा बेहद बेहद खफा थे। बस शुरू हो गये – हद है, तहजीब गयी तेल बेचने, अब तो सिनेमा देखना ही छोड़ दूंगा।हिम्मत जुटा कर मैंने उनसे पूछा, किस बात से नाराज हैं?कहने लगे, सिनेमा में कभी भी गलत बात नही दिखानी चाहिए, सिनेमा हमारे समाज की तहजीब का हिस्सा है। समझाया

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मगर, फिर भी...

13 अक्टूबर 2017
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बहुत बोलती थी वो...बोलती भी क्या थीमुट्ठी में सच तौलती थीतसव्वुर में अफसानों पर हकीकत के रंग उडेलती थीअल्हड़ थी वो नामुरादअरमानों से लुकाछिपी खेलती थीछू के मुझको सांसों सेअहसासों के मायने पूछती थीगुम हो कर यूं ही अक्सरअपनी आमद बुलंद करती

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जीवन का मर्म बस इतना है कि दाल में नमक कितना है...

14 अक्टूबर 2017
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... और वो सुकून से मर गये...!

17 अक्टूबर 2017
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बात बहुत छोटी सी है... पता नहीं, कहनी भी चाहिये या नहीं...!दरअसल, कहना-सुनना एक खास परिवेश एवं माहौल में ही अच्छा होता है। क्यूं...?इसलिए कि विद्वानों ने कहा है, ‘शब्द मूलतः सारे फसाद की जड़ है’...मगर, मामला तो यह भी है कि खामोशी भी कम फसाद नहीं करती...!चलिये, कह ही दे

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इस शतक को शून्य कर दो...!

19 अक्टूबर 2017
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शून्य से सौ बनानासफलता पर इतरानाकाबिलियत का अपनेबेसाख्ता जश्न मनाना...जो कोई पूछ दे अगरसूरमां हो बहुत तुम गरबस ये करके दिखा दोचक्रव्यूह में घुसे शान सेजरा निकल कर दिखा दोये जो शतक लगाया हैउसे फिर से शून्य बना दो...इतना चले हैं हम सबकि रास्ते चिढ़ गयें हैंइतने हासिल किये मुकम्मलमंजिलें बेनूर हो चली है

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तर्जे-बयां के फरोगे-हुस्न की खुशबू का लुत्फ...

21 अक्टूबर 2017
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तर्जे-बयां, यानि किसी चीज के बारे में कहने-सुनाने का तरीका... इस तर्जे-बयां का हमारी जिंदगी में और उसके खुशनुमेंपन में बेहद संजीदा रोल है... हम हालांकि आज की तेज जिंदगी में इस तर्जे-बयां की खूबसूरती की खुशबू से लगातार महरूम होते जा रहे हैं... चलिए, थोड़ी बातचीत इसी तर्

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