आदतन... इरादतन... फितरतन!
... या फिर, यूं ही ... बेसबब...
... गैरइंतखाबी सुर बरसे,
नामुकम्मल मेहरबानियां भी,
आंधियां भी रंगो-शबाब से बरसीं,
अरमानों के रंग तो बहुत थे मगर,
सूखी हथेलियों से पूछिये क्यूं नहीं बरसीं!
... मासूमियत पिस के जो हिना हुईं
तो आसनाई बदरंग हो गयीं...
फिर खुसूशियत स्याह हो चलीं
गाफिले-दिल पे रंगो-बू
यूं ही, बेमानी हुए जाते हैं,
सफहों पे तारीक अब भी,
बारंग लिखे आते हैं...
... शुक्रे-खुदा जो ये बरसे हैं,
बेनूर जिंदगियां इसी को तरसे हैं...
पर जो ये रंग हैं, कुदरत के,
उसे ही बरसाने दें,
आदमी को उसे दिल में बसाने दें
दुआ करें, आमद का रंग सुर्ख हो,
उन्हें छा जाने दें, फैल जाने दें...