सत्य संभवतः वह, जो स्वयंसिद्ध हो,
मनवाने की, उसे जिद करनी न पड़े।
मगर, किस काम का वह सत्य जिसे,
प्रतिपादित करने, लोहा मनवाने की
जंग और जबर न करनी पड़े...!
मजा नहीं आता हमें जिस चीज में,
उसके औचित्य व सार्थकता को
हम मानना ही नहीं चाहते…
और, मजा तो उसी में है जिसमें,
खुद को सही साबित करने का
सुख तो हो ही, साथ में,
दूसरे को गलत करार दिये जाने का
सार्थक बोध भी बनता हो...!
...खैर, जो भी हो,
बिना जोर-जबर व जंगी-जुस्तजू के
यह बात कह देने में
कोई बड़ा मसला नहीं दिखता कि,
कोई, किसी को, कुछ भी,
सिखा नहीं सकता,
हालांकि, हर कोई, किसी से भी,
कुछ भी सीख सकता है...