संस्कृतियां भी सीमित व संकुचित सोच व बोधत्व की सभा है। यहां तालियां भी ऐसी ही सफलताओं को मिलती है। इसलिए, आम इसंान को बहुत दोष भी नहीं दिया जा सकता, उसकी सीमित चेतना व मूर्खतापूर्ण सुख-बोधत्व के लिए। सच मानिये, ऐसी नीयति इसलिए है कि हमारी शरीर-दिमाग की बनावट ही ऐसी है कि इससे इतर कोई चेतन मन व बोधत्व आम तौर पर नहीं बन पाता। कैसे? आईये जानते हैं...
चलिये एक कहानी का सहारा लेते हैं। मान लीजिये कि मैं, एक उदास सी शाम में, टहलता हुआ जा रहा था। रास्ते में मुझे एक बेहद खूबसूरत पार्क जैसी एक जगह दिखी। मैं अंदर गया तो वहां बेहद जादूई नजारा था। चारो ओर रंग-बिरंगे और बेहद खुशबूदार फूल खिले थे। उनसे ही सटे तरह-तरह के पेड़ों की कतारें थीं। हरी घास की चादर पग-पग पर बिछी थी। और फिर, तरह-तरह के फव्वारों में से अलग-अलग रंग का पानी झर रहा था। पता नहीं कहां से बेहद सुकूनदेह संगीत भी फिजां में तैर रही थी। जिधर देखो, कुछ अपूर्व-अनुपम दिख पड़ता था।
थोड़ी ही दूर चला तो क्या देखता हूं कि उम्दा फलों के पेड़ लगे थे। वाह-वाह, क्या पके और पीले अमरूद, क्या आम और लीची और चीकू और भी न जाने क्या क्या! मजा यह कि लोगों की कोई भीड़ भी नहीं थी। इक्का-दुक्का युवा स्त्री-पुरुष थे, वो भी किसी कोने में प्रेमालाप में मगन थे। यह तो जैसे सोने पे सुहागा वाली बात...
मैंने किनारे पर लगे एक अमरूद के पेड़ की ओट ली, चारो ओर झांका, कोई दिखा नहीं। दो-चार कदम चहलकदमी कर के आश्वस्त हुआ कि कोई देख नहीं रहा है और फिर, बड़ी तेजी से अमरूद के दो बड़े, पीले और दमदार फल तोड़े, जेब में रखा और बेफिक्री से टहलता हुआ पार्क के बाहर आ गया। मन तो झूम रहा था कि आज की शाम तो कमाल ही कर दिया। इतने में मेरे कुछ दोस्त भी टहलते हुए दिखे और मुझे देख मेरी ओर आये। मेरी कामयाबी की कहानी सुन कर मेरी पीठ थपथपायी और दाद दी कि ऐसा ‘डेयरिंग’ काम तो मैं ही कर सकता था। मन सुख से भर गया। गर्व करने का अपना विचित्र सुख है। मैंने अमरूद खिलाये दोस्तों को और खुद भी खाया। फिर मैं अपनी ‘मर्दानगी’ की डींगे हाकता अपने दोस्तों के साथ घर चला।
मुझे पता है, आप समझ गये होंगे कि कहानी क्या बयां करना चाहती है। जी हां, मेरी सफलता मेरे खंडित व सीमित बोधत्व के कारण सिर्फ दो अमरूद तक ही सीमित रह गई और मैं इसी पर गर्व से इतराता रहा। मेरे दोस्तों, यानि समाज-संस्कृति ने भी इसी की दाद दी। जबकि वह खूबसूरत बाग, उसका असीमित व अखंडित सौंदर्य व बांकपन, फूलों की खुशबू, घास की हरियाली, रोशनी व संगीत का अनमोल लुत्फ, चैन से किसी बेंच पर बैठ कर आराम करने का सुख, वह सब कुछ बस संभावनायें ही बन कर रह गईं मेरे लिए। मैंने सारी संभावनाओं को भुला कर, अपनी सफलता को सिर्फ दो अमरूद के स्वाद व हासिल कर पाने के दंभ तक सीमित कर लिया। और मजेदार बात यह कि अपनी मखर्तापूर्ण ‘सफलता’ का मैं ढिंढ़ोरा भी पीट रहा हूं।
यही है वह बात जो शुरूआत में कही गई - अपनी ही चेतना के खंडित एवं विकृत बोधत्व के कारण, इंसान की नीयति कभी भी उसको वह मुकाम नहीं हासिल करने देती, जिसका व हकदार भले ही न हो, पर उसमें उसे पाने का माद्दा होता है। जी हां, अधिकांशतः, हममें से ज्यादार लोग, ऐसी ही सीमति व खंडित ‘सफलता’ के सुख-बोधत्व की चेतना के गुलाम बन कर जीवन को जाया करते हैं।
यकीं जानिये, आज ही नहीं, हजारों सालों से, इसंान जितना हासिल करता है और जिसे अपनी सफलता कहता है, वह बहुत ही थोड़ा और गैरजरूरी होता है मगर इसे हासिल करने के लिए वह संभावनाओं के विशाल भंडार की अनदेखी कर देता है। तो, जीवन, अमूमन, असीमित संभावनाओं के बीच बेहद संकुचित व खंडित सफलताओं की मूर्खतापूर्ण गौरव-गाथा है। समाज व संस्कृतियां, चिरकाल से ऐसे ही सुख-बोध को प्रश्रय देती आई है...
यह जो जीवन का विशाल विस्तार है, उसमें मोती ही मोती बिखरे पड़े हैं। मगर, हमें दिखते ही नहीं। बाग दिखता नहीं बस दो अमरूद दिखते हैं। तो, मोतियों को छोड़ कर दो-चार कैंकड़े पकड़ लाते हैं, उन्हें पका कर खाते हैं, दोस्तों-रिश्तेदारों को परोसते हैं, दाद पाते हैं और फिर गर्व करते हैं। अपनी गौरव-गाथा लोगों को भी सुनाते हैं। समाज व संस्कृति भी अमरूद ही देख सकने के बोधत्व की शिकार है। स्वाद से इतर बोधत्व को कम ही कोई दाद मिलती है समाज से। इसलिए, दाद और स्वीकृति मिल ही जाती है हर ऐसे सीमित व खंडित बोधत्व व ‘सफलता’ को।
इसलिए ही, आज नहीं, हजारों सालों से ज्ञान ी पूवर्जों ने चेताया है हमें। और आज, आधुनिक विज्ञान का ‘कागनीटिव सायंस’ व ‘कांसयसनेस’ की अवधारणएं उसे ही दुहरा रही है। अपनी चेतना को विस्तारित कीजिये। रोज नये आयाम जोड़ने की जुगत में लगे रहिये। क्यों?
जैसी आपकी चेतना, वैसा ही आपका बोधत्व और जैसा आपका बोधत्व, वैसी ही आपकी नीयति...!