एक बेहद मासूम सी गुफतगूं की आरजू, शब्दों की सतरंगी पोशाक पहनने की जिद ठाने बैठी थी। मैंने उसे डराया भी कि शब्दों से संवाद की बदगुमानी अच्छी नहीं। पर जिद के आगे झुकना पड़ा। आपसे गुजारिश और यह उम्मीद भी कि आपकी स्वीकृति उसी प्रेम व करुणा के भावों में मिलेगी, जिस भाव में अभिव्यक्ति की अल्हड़ सी कोशिश है। लफ्जों की इस नौरंगी-नार की पजीराई कीजिए। इस संवाद से दिलरुबाई कीजिए।
न हीं यह कोई किताब है, न हीं मैं कोई लेखक! कहने को मैंने 28 ईबुक्स लिखी हैं अब तक, जो अंग्रेजी में हैं, मगर मैं उन्हें आपसब से बातचीत ही मानता हूं। क्यूं कि मूलतः मैं लेखक नहीं, बल्कि सहज-सरल इंसान हूं, जिसे गुफतगूं के सिलसिले के खुशनुमेंपन और सार्थकता-उपयोगिता पे भरोसा है। एक ऐसी ही मासूम सी गुफतगंू एक सिलसिला पाने की जिद ठाने बैठी थी, सो सोचा, चलिए, सब अपने ही तो हैं, कुछ कहा-सुना जाये तो खुशनुमेपन में शायद कुछ इजाफा ही हो। हिंदी में लिखने में एक अजीब सा अपनापन है। वैसे तो कुछ भी लिखने में थोड़ा डरता हूं क्यूं कि शब्दों द्वारा लेखन के माध्यम से भावाव्यक्ति की सार्थकता का मैं बहुत कायल नहीं। हालांकि, हिंदी मुझे आती नहीं, लेकिन इस भाषा में लिखने में वैसा डर नहीं लगता। वैसे तो अंग्रेजी भी कहां आती है! बात जो आपसब से कहनी है, उसके औचित्य और सार्थकता को लेकर दो राय होना लाजमी है। मेरी बस गुजारिश इतनी है कि आपसब इसे बेहद सहज-सरल-सुगम भाव व चेतना से पढ़ें। मेरी खुशी इसमें है कि मैं यह सब आपसब से कह पा रहा हूं। आप अगर इसे उसी सहज भाव में पढ़ पायें, जिस सहज आत्मीयता के भाव से यह सब कहा गया है तो इस मासूम सी गुफतगूं की सार्थकता बन पायेगी। ऐसा होने पर स्वतः ही यहां कहे गये शब्द हमसब के आत्मचिंतन में स्थान पा सकेगा। यही आरजू है....।
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