गली में कुत्ते बहुत भोंकते हैं,
बाजार में कोई हाथी भी नहीं...
शोर का कुलजमा मसला क्या है,
कुछ मुकम्मल पता भी नहीं...
चीखना भी शायद कोई मर्ज हो,
चारागर को इसकी इत्तला भी नहीं...
मता-ए-कूचा कब का लुट चुका है,
शहर के लुच्चों को भरोसा ही नहीं...
दो घड़ी बैठ कर रास्ता कोई निकले,
मर्दानगी को ये हुनर आता ही नहीं...
या खुदा तू ही कुछ दखल रख अब,
तेरे बंदों को जीने का करीना ही नहीं...।