अष्टमी का दिन... सुबह के नौ-सवा नौ का वक्त... वो मिली मुझे...!
अम्मा को पूजा के फूल चाहिये थे सो सीधा पड़ोस के मंदिर पहुंचा।
पहले भी तो कई दफे आ चुका हूं मगर वो पहली बार दिखी मुझे...
तिबत्ती थी वो... छोटी सी... बहुत संुदर... देवतुल्य...!
उजले सफेद बाल, लाल रंग की मुड़ी-तुड़ी पोशाक...
बामुश्किल उसकी छोटी-छोटी आंखें खुल पाती थीं, पर मुस्काती थीं...
छोटी सी मेज पर कुछ फूल, कुछ मालाएं - पीले, लाल, गुलाबी...
मैंने पूछा - अम्मा, ये माला कैसे दिये...?
चंद पलों को चुप ही रही... मुझे निहारा... आंखें झुका लीं...
झुकी आंखों से ही कहा - बेटा महंगे ही मिले हैं आज...
कमाल...! किसी और के अपराध बोध को भी ‘अपना’ बना लिया...
वैसे तो यह माला 20 टके की मिलती है पर आज 25 की थी...
मैंने हंस कर कहा - अरे अम्मा, मंहगा क्या है, आप जो कहेंगी वह मेरे लिए सही...
वो हंसी तो आंखें बंद हो गयीं उसकी, फिर मंदिर की ओर इशारा कर के कहा - वही देगा, जो देगा...!
मैंने आवाज बुलंद करके कहा - उसको क्यूं बीच में लाती हैं आप, मामला मेरे-आपके बीच का है, वो क्या करेगा, आपको वही मिलेगा जो आप चाहेंगी...
उसकी मुस्कुराहट बढ़ती गई, कहा - तुम्हे भी तो उसने ही भेजा है...!
उसने पत्तल में लपेट कर माला मुझे दी। मैंने उसे तीस रुपये दिये...
उसने नोट हाथ में लिये, मुझे फिर निहारा और मुस्कुरा कर कहा - उसने दिये...!
मैंने कार स्टार्ट की, उसको देखा, फिर ‘उसकी’ ओर देखा, मुस्कुराया और मन ही मन ‘उससे’ कहा - ‘पता नहीं, कौन किसका अवलम्ब है...!’
अवलम्ब तो ‘आस्था’ है, शायद, ‘वो’ तो यूं ही बेवजह ही मेरे और ‘अम्मा’ के बीच चला आता है...