शब्द तो कंगाल हुए जाते हैं...
लम्हों को इश्के-आफताब नसीब नहीं,
खुशबु-ए-बज्म में वो जायका भी नहीं,
मंटो मर गया तो तांगेवाला उदास हुआ,
शहरों में अब ऐसे कोई वजहात् नहीं...!
तकल्लुफ तलाक पा चुकी अख़लाक से,
बेपर्दा तहजीब को यारों की कमी भी नहीं...।
आवारगी भी कभी सोशलिस्ट हुआ करती थी,
मनचलों ने कोई गुंजाईश अब छोड़ी ही नहीं...।
मीर-ओ-मोमिन की जात कब की फनां हुई,
गालिब की तर्जे-बयां को रिजर्वेशन भी नहीं...।
हम जो कहते भी कुछ तो भला क्या कहते,
सुनने-सुनाने का लुत्फ अब बचा ही नहीं...!