तेरी मुबहम दावेदारियां, सबब हैं,
मेरी आदतन खुशगवारियों का,
तूं जो यूं, करके जुल्फें परीशां,
तूफां को दावते-जुनूं देती हो,
अल्फाजों के सितारे बिखेर कर,
कहकशां को बटुए में सहेज लेती हो,
खूब दिखती हो, अच्छी लगती हो...।
किसको गरज है खुलूस की आमद से,
कौन जाने क्या होता है जो दिखता है,
मुझे मकसूद है तेरे वसूक की तपिश से,
मंजिलें मुकम्मल हैं फ़खत राह की रविश से,
परिंदों से कौन सूदो-ज्यां का हिसाब पूछे है...
गैरते-वफा को मैंने ही आजाद किया है,
कि तूं वहां जा के देखे हकीकत क्या है,
आबला-पा की दुआएं हैं तेरे ही लिए,
कि तू समझे कि मंजिल का सिला क्या है,
मुझे सुकूं है कि मैं मुन्तजिर हूं तेरी राह में...।
कलेजे की गिरह है जो तेरे रोने से खुलेंगी,
दिल बैठ जायेगा तो चेतना तेरी चल निकलेगी,
पैराहन हो लें बदरंग कि तेरा रूप निखरेगा,
मैं हूं और कहूंगा, यह बात अच्छी है उसकी,
भटकने निकला है वो कि खुद को पा जाये,
ये मेरी ताकीद है, गलत है यह रवायत कि,
सुबह के भूले को शाम ढले लौटना होता है,
तूं जब भी लौटे, मैं घर पर ही हुआ करता हूं...।