एक सच्चा इंसान हुआ करता था...!
... अब लीजिए, हो गया शुरू विवाद... ये कैसे कहा कि सच्चा ही था। इंसान था ये तो फिजिकली एग्जामिनेबल फैक्ट है। सच्चा था, ये कैसे तय किया?
सच्चा कहने का आशय ये है कि उसको ये पता था और वो इस बात को प्रैक्टिस में भी लाता था कि किसी भी चीज का नजरिया युजुअली एक नही हो पाता। जितने व्यूज उतने ही प्यांट्स आफ व्यूज हो सकते है।
मेजारिटी आफ ग्रेट्स ने माना है कि किसी भी चीज को समझने के लिए होलिसटिक अप्रोच ही अच्छा है। ये बल्कि अच्छा है की मल्टीप्लिसिटी आफ व्यूज हैं और सबको मिला कर ही सच का अन्वेषण होना चाहिए।
अच्छाई का यही यार्डस्टिक है, यही बेंचमार्क है ट्रान्सेनडेंटल विस्डम का। इसलिए कहा कि एक इंसान था जो अच्छा था, क्यूं कि वो होलिजम में बिलीव करता था। प्रैक्टिस भी करता था।
उस इंसान ने भी सब कुछ देखा, शायद गौतम बुद्ध की तरह। फिर उसको होलिजम का विस्डम समझ में आया, बिना किसी जंगल में गये।
लेकिन, ये समझ में आ गया कि ये दुनिया ‘डिफरेंट पायंट्स आफ व्यूज की युद्ध-भूमि बन कर रह गयी है। जबकि उसको किसी भी तरह से कोई कान्फ्लिक्ट दिखता ही नही था। तो उसने ये तय किया कि अपना विस्डम सिर्फ आप के लिए ही होता है। सबको अपना अपना विस्डम खुद ही पाना होता है।
एक दिन ये इंसान सबको छोड़ कर एक जंगल में चला आया। वहां उसको कुछ दिन के बाद लगा कि सब कुछ करने के बाद थोड़ा सा वक्त बच जाता है। अगर कोई साथ होता तो उसके साथ थोड़ा बातचीत करके अच्छा लगता।
तो उसने जंगल से एक हिरण के बच्चे को उठा लिया जिसकी मां उसको जन्म देते ही मर गयी थी। वो हिरण उस इंसान के साथ रहता और उस से बात करके वो इंसान खुश होता।
समय बीता तो वो हिरण भी उस इंसान के साथ ध्यान में बैठ जाता। जब वो इंसान ध्यान करता तो हिरण भी अपने दो पैरों पर खड़ा हो जाता और आंखें बंद कर के ओम की आवाज निकलता। कहते हैं, एपिंग, यानि नकल करना हर जीव का फस्र्ट इंस्टिंक्ट है। वो हिरण वही कर रहा था... और कोई बात ना थी। कोई चमत्कार नही था। ये बात उस इंसान को पता थी।
कुछ दिन बाद पास के एक गांव से कुछ लोग वहां आए और उनको उस हिरण को ध्यान करता देख लगा कि ये इंसान जरूर कोई बड़ा साधु महात्मा है जिसके प्रताप से ये हिरण भी पुण्यात्मा हो गया है और इंसान की तरह ही ध्यान करता है और बोलता है।
फिर क्या था, कई लोग उस आदमी के भक्त हो गये। कुछ लोग चेला हो गये। वो इंसान चुप रहा। उसको हंसी ही आती। मगर वह किसी से कुछ कहता नहीं।
खैर... एक दिन वो आदमी मर गया। उसके एक चेले ने सोचा, यही मौका है। उसने उस हिरण को खूब हरी हरी घास खिलाई और फिर ध्यान में बैठ गया ये सोच कर की हिरण उसको ध्यान में देख कर वैसे ही करेगा जैसे उस आदमी के लिए करता था जो मर गया, और वो उस की जगह ले लेगा, महात्मा कहलाने लगेगा।
बहुत प्रयास किए मगर हिरण कुछ भी नही करता। बस चुपचाप पड़ा रहता। कुछ खाता भी नही। एक दिन वो हिरण भी मर गया... उस चेले को ये समझ में कहां से आता कि किसी का विस्डम सिर्फ उसी का होता है... दूसरे उसको नही पा सकते... दूसरा भी विस्डम पा सकता है। मगर सिर्फ अपने प्रयास से...
बुद्ध को जब विस्डम मिला तो वो चुप हो गये। उनको समझ में आ गया कि अगर वो कुछ भी कहेंगे तो उसका सही अर्थ कभी भी नही लग पाएगा। बहुत दिनों तक वो चुप रहे, मगर बाद में जब उनको दूसरों का दुख नही देखा गया तो वो सरमन्स देने लगे।
लेकिन, हुआ वही। बुद्ध के उपदेश और उनका विस्डम आज बेहद कम ही दिखता है... ज्यादातर लोग बस इस कर के ध्यान कर रहे हैं कि कहीं हिरण उनके साथ ध्यान करने लगे तो वो भी बुद्ध हो जायेंगे। अब तो हिरण भी मर गया... बुद्ध ही क्यों, हर महान इंसान की ज्ञान -परंपरा के साथ वही हो रहा है। हर मर्म, हर ज्ञान, हर विवेक का रीचुअलिस्टिक स्परूप ही वजूद में दिखता है, मूल तत्व कब का खत्म हो गया....
तो... इस कहानी का निष्कर्ष क्या है...?
कोई निष्कर्ष मत निकालिए.... बस मुस्कुराइये... अपना अपना हिरण तलाशिए... होलिजम के यूनिवर्स को अंदर वजूद में समा लीजिए... और फिर, थोड़ा और मुस्कुराइये...!