इश्क भी सांचों की खांचों में फंसे होते हैं।
मां-बाप, भाई-बहन, जोरू-सैंयां सब सांचे हैं,
आप अच्छे जब सबके सांचों में ठले होते हैं।
प्रेम, रूप-स्वरूप की आकृति से परे बेवा है,
हम तो ईश्वर को भी पत्थरों में कैद रखते हैं।
सफलता-विफलता के भी सरगम तय छोड़े हैं,
रिश्तों की रागदारी भी ‘दरबारी’ में ही गाते हैं।
मां की गोद से मिट्टी की आगोश तक का सफर,
हम-आप कहां, बस ये ‘सांचे-खांचे’ तय करते हैं।
पर जरा ठहरिये, दो पल सोच कर यह समझिये,
हम रिश्ते तोड़ लेते है, सांचों से क्यूं सहम जाते हैं...?