वजूद भी अपना सुकूं में ही है
दिल बाइज्जत इख्तियार में है...
लम्हों से कोई पुरानी रंजिश भी नहीं
जमाने से वायस ओ गरज भी नहीं
सरेबाजार तो हूं पर खरीदार भी नहीं...
फिर भी क्यूं ये लफ्ज बोलते हैं
मेरी औाकत मेरे सामने तौलते हैं
निचोड़कर रगों को क्या टटोलते हैं...
पिछली गलियां कब की बेसदा हो चलीं
याद नहीं आरजूएं आखिरी कब मचलीं
तेरी याद थीं वो भी अब बूढ़ी हो चलीं...
फिर भी कुछ तो है कि ये कह नहीं पाया
कि इस उम्र में भी जीने का न अंदाज आया
जिंदगी छोड़ दे पीछा मैं बाज आया...
पुरानी बंदिश है गले में, गाता आया हूं
इंसानियत बुरी लत है, निभाता आया हूं
करुणा थी, सो है, उसको कहां भुला पाया हूं...