भाषा को अदब और तहजीब का दर्जा दिया गया है। कहा गया, शब्द से बड़ा ना कोई मित्र ना ही कोई दुश्मन। शब्द अपने आप में एक समग्र संसार है। किसी शायर ने आशिकी की इंतेहां कर दी और अपने महबूब के बारे में कहा, तू मेरे अल्फाजों के बयान के तसव्वुर की आखिरी हद से भी जियादा खूबसूरत है। कमाल है...!
विद्वानों ने माना, शब्द मां समान है। मातृ-स्वरूपा! ये प्राण-ऊर्जा की वंदना है। भाव-चेतना की स्तुति है। मर्मग्यता का नाद-स्वर है। बोधित्व का प्रखर संगीत है। समग्रता का समुह-गान है...।
बहुत पहले, शब्द और भाषा की विकास यात्रा और इंसानी इवोल्यूशन में इसकी भूमिका को लेकर जिज्ञासा रही। बहुत कुछ पढ़ा और समझ पाने की कोशिश की। वै ज्ञान िक नजरिए से इसे समझना बहुत सुखद है।
कहा गया है, शब्द और भाषा का विकास इंसान की सामुहिक प्रवृतियों की ही उपज है। यानी, हमारे पूर्वजों ने आपसी समझ और साथ मिल कर उत्पादकता और कार्यशीलता को बेहतर और ज्यादा प्रभावी बना पाने के लिए ही भाषा की नींव रखी थी। यह भी माना जाता है कि भाषा के विकास की वजह से ही आज इंसानों की चेतना इतनी समृद्ध हो सकी। या यूं कह लें कि इंसानी दिमाग जब एक सीमा तक विकसित हो पाया कि उसमें सामुहिकता की प्रवृतियां बोध पा सकीं, तब ही भाषा का विकास संभव हो पाया।
यह अहम है। शब्द का उद्देश्य एकल और निजी ज्ञान या व्यक्तिगत सफलता होने की अवधारणा बाद में जुड़ी। मौलिक उद्देश्य है परस्परता, यानी, म्यूचुएलिटी और कलेक्टिविटी के मूल भाव को सुनिश्चित और सुदृढ़ करना। आज भी, दुनिया भर में, भाषा की यही प्रतिष्ठा है। भाषा इंसानियत को जोड़ती है। मैं भाव को हम भाव से जोड़ती है। मैं को हम की व्यापकता और प्रतिफलता में समाहित कर सुंदर समाज और संसार की अनुशंसा करती है। इसलिए, कितनी भी समस्याएं हों, दो लोगों के बीच या दो देशों के बीच, हमेशा ही यह विश्वास बना रहता है कि बातचीत न बंद हो, क्यूं कि यह भरोसा है कि शब्द अपना जादू व कमाल दिखा ही देते हैं और परस्परता सुनिश्चित कर ही लेते हैं। यह मुकम्मलियत है शब्दों की!
बड़ा प्रश्न है। क्या हम सब, शब्द को उसकी प्रतिष्ठा के अनुरूप मान दे पाते हैं? क्या शब्द को बोलते-उच्चारित करते वक्त इस मातृ-स्वरूपा भाव के प्रति अपनी संपूर्ण जवाबदेही को समझते और निभा पाते हैं? क्या हमारे शब्द हमें जोड़ते हैं या उल्टा तोड़ देते हैं? क्या हमारे सम्मिलित स्वर और शब्द हमारी सामुहिकता और परस्परता को बेहतर बना पाते हैं या उसको और विचलित कर देते हैं? जवाब हर व्यक्ति तलाशे...!
कहा गया है, शब्द संभार बोलिए, शब्द के हाथ ना पांव, एक शब्द औषध करे, एक शब्द करे घाव। क्यूं भला ऐसा? शब्द तो मां है, फिर शब्द भला घाव कैसे और क्यूं कर पाते हैं? ऐसे शब्द क्यूं अब तक वजूद में हैं जिन से घाव बन जाते हों? अल्फाजों की ये कैसी तहजीब और अदब है जो जख्म दे जाती है? क्यूं ऐसी जिद है कि वो शब्दावली जीवित रहे जिसे संभालने की नौबत आती हो?
ये प्राण-ऊर्जा की वंदना कब और क्यूं ऐसी हो गयी? भाव-चेतना की स्तुति कब और क्यूं ऐसी हो गयी? मर्मग्यता का नाद-स्वर कब और क्यूं ऐसा हो गया? बोधित्व का प्रखर संगीत कब और क्यूं ऐसा हो गया? समग्रता का समूह-गान कब और क्यूं ऐसी हो गयी? ये मातृ-स्वरूपा कब और क्यूं ऐसी हो गयी? इसे सब सामुहिकता में सोचें....
किसी ने कहा, देखो, ये औरत कितनी खूबसूरत है, इसकी ईमानदारी और निश्छलता इसके सीने मैं दूध बन कर उतर गयी है। हम सब की रगों में यही दूध प्राण-ऊर्जा बन कर प्रवाहित हो रही है। इस मातृ-स्वरूपा को नमन करने का यही एक रास्ता है कि हम सब इसकी निश्छलता और ईमानदारी के प्रति पूर्णतः जवाबदेह बने रहें।
शब्द का यही मान है। इसकी यही उचित मर्यादा है। इसकी ईमानदारी और निश्छलता पर कोई बाण या कटार ना चलने पाए। इसकी स्तुति-गान में कोई चूक ना होने पाए।
इसे हम सब को समग्रता व सामुहिकता में सुनिश्चित करना है... है न...!
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