खाली किश्तियां मचलती दरिया से पूछती हैं,
यूं ही, जैसे कोई अखलाकी रवायत हो,
कि फर्क पड़ता भी है हमेशा बहते रहने से,
या ये भी बस यूं ही आदतों में शुमार है...?
लोग न जाने क्यूं तेरी मिसाल रखते हैं,
ठहरे रहने से जैसे आदतन मलाल रखते हैं...
बहते रहना ही क्यूं ख्याले-मुकम्मलियत है,
बेसबब इतराते और चलते तो रास्ते हैं,
मंजिले कहां आवारा होती हैं...
फिर अपनी मर्जी से कहां तेरा भी सफर है,
लकीर के फकीर वाली बिसात है आमद तुझ पे भी...
मैं भी तुझ सा ही हूं, अपनी तकदीर से बंधा सा,
कि किनारों की कैद में हूं मैं भी, तेरी ही तरह,
पर आवारगी का इल्जाम नहीं ढोता,
मंजिलों तक ले जाता हूं, इंसान ढोता हूं...