किसी ने कहा - संदेह करना सीखिये, यह वह हुनर है जो बड़ी मुश्किल से आता है।
यह भी कहा गया है - जो भी व्यक्ति सहज-सरल-सुगम है, वही संदेह की कला में निपुण हो सकता है और उसी के पास मासूमियत की विशुद्ध विद्वता है।
अमूमन, शब्दों के अपने कोई तयशुदा मायने नहीं होते... संभवतः, अर्थ या अनर्थ शब्दों में निहित होते हैं, जिनका सहज-सरल-सुगम चित्त का व्यक्ति ही उद्भेदन कर पाता है। बाकी उसके प्रवाह में बहते-डूबते रहते हैं।
तो, संदेह करने की कला का पहला मंत्र है हर अर्थ व अनर्थ पर प्रथमदृष्टया संदेह करना... उसकी सहज-सरल-सुगम वृत्ति से विवेचना करना, और फिर सभी संभावित आयामों को जांच परख कर के उचित व मानक मायने को स्वीकारना। और, संदेह करते रहना... यही सतत् विकास क्रम की जरूरी शर्त है...!
जो सहज-सरल-सुगम व्यवहार व कर्म का व्यक्ति होगा, वह सबसे पहले जिस बात पर संदेह करेगा, वह होगा उसका स्वयं का ही वजूद। उसके सामने स्वयं के होने व स्वयं के होने के मायनों के पहले से तय मानक होंगे लेकिन, वह उन पर अपनी संदेह की कला का उपयोग करेगा। वह पूछेगा, मैं कौन, मैं क्यूं, मैं वही जो दिखता है या लोग कहते हैं या फिर कुछ और...?
आध्यात्म एवं वि ज्ञान दोनों ही कहते हैं - अपनी चेतना, यह स्वयंबोध, यह जो मैं के होने का भाव या अभिव्यक्ति है, वह एक तरह का छलावा है, संभवतः एक मृगमारीचिका है। मैं है नहीं, मैं होता नहीं है, बल्कि यह समय व परिस्थिति के अनुरूप तय होता रहता है। फिर भी कभी स्थायी भाव में नहीं होता। इसलिए, जो सच्चा ज्ञानवान है, वह बेहद सहज-सरल-सुगम भाव, चित्त व वृत्ति से इस स्वबोध व चेतना पर संदेह करता हुआ इसे हर पल जांचता-परखता रहता है। इस मैं के हर स्वभाव, व्यवहार व कर्म को संदेह की कला के दायरे में रखते हुए हर पल जीवन के उच्च मानकों की कसौटी पर कसता रहता है। और, संदेह करता रहता है....!
संदेह बेहद उच्च स्तर की कला है। इस कला के दायरे के बाहर कोई नहीं, न मैं का बोध, न ईश्वर, न ही ईश्वरत्व का बोध। जो इस कला का माहिर नहीं, वह यथार्थ का भी ज्ञाता नहीं हो सकता। यह कथन भी संदेह के दायरे में ही है...!
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