सप्तक के स्वरों की स्थापना सर्वप्रथम महर्षि भरत के द्वारा मानी
जाती है | वे अपने सप्त स्वरों को षड़्ज ग्रामिक स्वर कहते थे | षड़्ज ग्राम से
मध्यम ग्राम और मध्यम ग्राम से पुनः षड़्ज ग्राम में आने के लिये उन्हें दो स्वर
स्थानों को और मान्यता देनी पड़ी, जिन्हें ‘अंतर गांधार’ और ‘काकली निषाद’ कहा गया
| महर्षि भरत ने अपने स्वरों को न तो शुद्ध ही कहा न ही विकृत | क्योंकि उनको सभी
स्वरों की प्राप्ति षड़्जग्राम, मध्यमग्राम और उनकी मूर्छनाओं से हो जाती थी |
जैसे यदि धैवत को षड़्ज माना जाए तो नी कोमल ऋषभ हो जाता है | बहरहाल, ये सारी बातें संगीत की पारिभाषिक बातें हैं | बरखा
की रुत में जब अनेक पंछी, दादुर आदि समवेत स्वर में अपना राग
छेड़ते हैं तो वास्तव में ऐसा प्रतीत होता है जैसे वीणा के तारों को छेड़ने पर खरज
से गंधार की मीड में मानों अन्तर गंधार की ध्वनि उत्पन्न हो रही ही – जो प्रत्यक्ष
नहीं होती – क्योंकि अन्तर गंधार मूल स्वर न होकर खरज और गंधार के मध्य की एक
ध्वनि है... और इसी के साथ बरखा की गूँज के रूप में दसों दिशाओं में गूँजता खरज का
नाद मानों घोषणा सी करता है कि समस्त प्रकृति श्रुति-स्वर-संगीतमयी है... इन्हीं
उलझे सुलझे से भावों के साथ प्रस्तुत है हमारी आज की रचना... षड़्जान्तर... कात्यायनी...
सुबह सुबह
उनींदे भाव से खोली जब खिड़की रसोई की
बारिश में भीगे
ठण्डी हवा के रेशमी झोंके ने
लपेट लिया प्यार
से अपने आलिंगन में
और भर दिया एक
सुखद सा अहसास मेरे तन मन में...
बाहर झाँका
वर्षा की बूँदों
के सितार पर / हवा छेड़ रही थी मधुर राग
जिसकी धुन पर
झूमते लहलहाते वृक्ष गा रहे थे मंगल गान...
वृक्षों के
आलिंगन में सिमटे पंछी
झोंटे लेते मस्त
हुए मानों निद्रामग्न लेटे थे...
कभी कोई चंचल
फुहार बारिश की
करती अठखेली
उनके नाज़ुक से परों के साथ
करती गुदगुदी सी
उनके तन में और मन में
तो चहचहा उठते
वंशी सी मीठी सुरीली ध्वनि में...
कहीं दूर आम के
पेड़ों के बीच स्वयं को छिपाए कोयल
कुहुक उठती
मित्र पपीहे के निषाद में अपनी पंचम को मिला
मानों मिलकर गा
रहे हों राग देस या कि मेघ मलहार
कभी मिल जाती
उनके बीच में दादुरवृन्द की गंधार ध्वनि भी
मानों वीणा के
मिश्रित स्वरों के मध्य से उपज रही हो
एक ध्वनि अन्तर
गंधार की
जो नहीं है
प्रत्यक्ष, किन्तु समाया हुआ है षडज-गंधार के अन्तर में...
शायद इसीलिए
बरखा के स्वरों से
गूँज उठता है
षडज का नाद दसों दिशाओं में
घोषणा सी करता
हुआ कि स्वर ही नहीं
प्रणव के रूप
में समस्त ब्रह्माण्ड भी उत्पन्न हुआ है षडज से ही...
और ऐसे सुरीले
मौसम में खिड़की पर सिर टिकाए
सोचने लगा
प्रफुल्लित मन
कि शायद हो गया
है भान प्रकृति को
अपने इस
श्रुतिपूर्ण सत्य का
तभी तो रात भर
मेघ बजाते रहे मृदंग
और मस्त बनी
बिजुरिया दिखलाती रही झूम झूम कर
अनेकों भावों और
अनुभावों से युक्त मस्त नृत्य / सारी रात...