आज पितृविसर्जनी अमावस्या यानी महालया है और कल अर्थात आश्विन शुक्ल प्रतिपदा से शारदीय नवरात्र आरम्भ होने जा रहे हैं | महालया अर्थात पितृविसर्जनी अमावस्या को श्राद्ध पक्ष का समापन हो जाता है | महालया का अर्थ ही है महान आलय अर्थात महान आवास – अन्तिम आवास – शाश्वत आवास | श्राद्ध पक्ष के इन पन्द्रह दिनों में अपने पूर्वजों का आह्वान करते हैं हमारे असत् आवास अर्थात पञ्चभूता पृथिवी पर आकर हमारा सम्मान स्वीकार करें, और महालया के दिन पुनः अपने अस्तित्व में विलीन हो अपने शाश्वत धाम प्रस्थान करें | और उसी दिन से आरम्भ हो जाता है अज्ञान रूपी महिष का वध करने वाली महिषासुरमर्दिनी की उपासना का उत्साहमय पर्व | क्योंकि वह देवी ही समस्त प्राणियों में चेतन आत्मा कहलाती है और वही सम्पूर्ण जगत को चैतन्य रूप से व्याप्त करके स्थित है | इस प्रकार अज्ञान का नाश होना अर्थात जीव का पुनर्जन्म – आत्मा का शुद्धीकरण – ताकि आत्मा जब दूसरी देह में प्रविष्ट हो तो सत्वशीला हो…
“या देवी सर्वभूतेषु चेतनेत्यभिधीयते, नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः |
चितिरूपेण या कृत्स्नमेतद्वाप्य स्थित जगत्, नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ||” (श्री दुर्गा सप्तशती पञ्चम अध्याय)
अस्तु, सर्वप्रथम तो, माँ भगवती सभी का कल्याण करें और सभी की मनोकामनाएँ पूर्ण करें, इस आशय के साथ सभी को शारदीय नवरात्र की हार्दिक शुभकामनाएँ...
आज सायं चार बजकर छत्तीस मिनट तक अमावस्या तिथि है तो किसी भी समय तर्पण आदि का कार्य किया जा सकता है | किन्तु यदि विशेष मुहूर्त में करना हो तो कुतुप अथवा रोहिणी मुहूर्त और गजच्छाया योग अत्युत्तम माने जाते हैं | ज्योतिषीय गणनाओं के आधार पर अष्टम मुहूर्त का समय सामान्यतः प्रातः 11:36 से 12:24 तक माना जाता है और यही समय कुतुप मुहूर्त कहलाता है | इसके पश्चात रोहिणी काल सामान्यतः दिन में 12:24 से 1:15 तक माना जाता है | और इस अवधि में श्राद्ध कर्म उत्तम माना जाता है | गजच्छाया योग बनता है जब सूर्य हस्त नक्षत्र पर होता है अथवा त्रयोदशी के दिन मघा नक्षत्र होता है – अर्थात चन्द्रमा मघा नक्षत्र पर होता है | तो भगवान भास्कर आजकल हस्त नक्षत्र पर ही भ्रमण कर रहे हैं | ऐसे में यदि कुतुप या रोहिणी काल में श्राद्ध कर्म किया जाए तो उसका विशेष महत्त्व माना गया है |
महालया और नवरात्र... कैसा सुखद संयोग है कि पितृपक्ष के समापन के साथ ही आरम्भ हो जाती है नवरात्रों की चहल पहल... पितृपक्ष के दौरान ही नवरात्र और उनके साथ जुड़े दीपावली-भाई दूज तक चलने वाले अन्य पर्वों के लिए बाज़ार सजने शुरू हो जाते हैं, और पितरों को विदा करके लोग नवरात्रों के लिए घट स्थापना की तैयारी में लग जाते हैं... और ऐसा केवल भारत जैसे महान राष्ट्र में ही सम्भव है... भारत में वैदिक काल से ही यह प्रथा चली आ रही है कि पूर्ण भक्ति भाव से दिवंगत पूर्वजों का आह्वाहन किया जाता है कि वे अपने वंशजों के निकट आएँ, उनका आसन ग्रहण करें, पूजा स्वीकार करें और उनके अपराधों के लिए उन्हें क्षमा करें तथा अपने वंशजों को धन, समृद्धि एवं शक्ति प्रदान करें... साथ ही अग्निदेव से प्रार्थना की जाती है कि वह मृतकों को पितृलोक तक पहुँचाने में सहायक हो और वंशजों के दान पितृगणों तक पहुँचाकर दिवंगत आत्मा को भीषण रूप में भटकने से रक्षा करें... स्वर्ग के आवास में पितृगण परम शक्तिमान एवं आनन्दमय रूप धारण करें तथा पृथ्वी पर उनके वंशज सुख समृद्धि का अनुभव करें इसी हेतु पिंडदान तथा आहुतियाँ आदि देने की प्रथा है... हमारे ऋषि मुनि वास्तव में बहुत दूरदर्शी थे... वे जानते थे कि नित्य प्रति की रोज़ी रोटी की समस्याओं से जूझते हुए मनुष्य सम्भव है अपने पूर्वजों का स्मरण न कर पाए... इसलिए उन्होंने भाद्रपद पूर्णिमा से लेकर आश्विन अमावस्या तक का सोलह दिनों की अवधि इस कार्य के निमित्त निश्चित कर दी... इसका आध्यात्मिक पक्ष भी बड़ा बलवान है... श्राद्ध शब्द का सामान्य अर्थ है श्रद्धापूर्वक किया गया कर्म – “संपादन: श्रद्धया कृतं सम्पादितमिदम् |” जिस कर्म के द्वारा मनुष्य “अहं” अर्थात “मैं” का त्याग करके समर्पण भाव से “पर” की चेतना से युक्त होने का प्रयास करता है वही वास्तव में श्रद्धा का आचरण है... श्रद्धावान होना चारित्रिक उत्थान का, ज्ञान प्राप्ति का तथा एक सुदृढ़ नींव वाले पारिवारिक और सामाजिक ढाँचे का एक प्रमुख सोपान है... और जिस राष्ट्र के परिवार तथा समाज की नींव सुदृढ़ होगी उस राष्ट्र का कोई बाल भी बाँका नहीं कर सकता... पितृपक्ष के अन्तिम दिन यानी अमावस्या को पितरों को श्रद्धा सहित अन्तिम तर्पण करके उन्हें विदा किया जाता है – इसीलिए महालया नाम है इसका... महालया अर्थात महान आलय... सनातन आवास... हम सब नश्वर जगत में विचरण कर रहे हैं...
लेकिन हमारी दिवंगत आत्माएँ अनश्वर जगत में विश्राम करती हैं... और महालया के साथ आरम्भ हो जाती है महिषासुरमर्दिनी के मन्त्रोच्चार के साथ नवरात्रों में माँ भगवती के नौ रूपों की पूजा अर्चना... जगह जगह देवी के पण्डाल सजते हैं जहाँ दिन दिन भर और देर रात तक माँ दुर्गा की पूजा का उत्सव चलता रहता है नौ दिनों तक, जिसका समापन दसवें दिन धूम धाम से देवी की प्रतिमा विसर्जन के साथ किया जाता है... जीवन का... प्रकृति का यही तो नियम है शाश्वत सत्य चिरन्तन... जन्म के बाद मृत्यु और मृत्यु के बाद पुनः जन्म... यही परिवर्तनशीलता प्रकृति के कण कण में व्याप्त है... और इसी परिवर्तनशीलता का सम्मान करने की भावना से श्राद्ध पक्ष के तुरन्त पश्चात नवरात्रों के उल्लास और भक्ति पूर्ण पर्व की धूम आरम्भ हो जाती है...
अस्तु !
ॐ यान्तु पितृगणाः सर्वे, यतः स्थानादुपागताः | सर्वे ते हृष्टमनसः, सवार्न् कामान् ददन्तु मे ||
ये लोकाः दानशीलानां, ये लोकाः पुण्यकर्मणां | सम्पूर्णान् सवर्भोगैस्तु, तान् व्रजध्वं सुपुष्कलान ||
इहास्माकं शिवं शान्तिः, आयुरारोगयसम्पदः | वृद्धिः सन्तानवगर्स्य, जायतामुत्तरोत्तरा ||
इन मन्त्रों का इस भावना के साथ कि हमारे निमन्त्रण पर हमारे पूर्वज जिस भी लोक से पधारे थे - हमारे स्वागत सत्कार से प्रसन्न होने के उपरान्त अब अपने उन्हीं लोकों को वापस जाएँ और सदा हम पर अपनी कृपादृष्टि बनाए रहें – श्रद्धापूर्वक जाप करते हुए हम सभी अपने पूर्वजों को विदा करें और कल आश्विन शुक्ल प्रतिपदा को कलश स्थापना तथा भगवती के शैलपुत्री रूप की उपासना के साथ श्रद्धा भक्ति पूर्वक आमन्त्रित करते हुए देवी के आगमन के उत्सव का आरम्भ करें... माँ भगवती सभी का कल्याण करें...