श्रद्धा, प्रेम, विश्वास और समर्पण
आज बात करते हैं
श्रद्धा की – प्रेम की – विश्वास की – समर्पण की | क्योंकि ये सभी केवल शब्द मात्र
नहीं हैं, वरन इनमें बहुत गहरे
भाव छिपे हुए हैं | श्रद्धा की ही बात करें तो हमारी समझ से तो अज्ञात में उतरने
का नाम श्रद्धा होता है | किसी ऐसे के प्रेम में पड़ जाना श्रद्धा होता है जिसके
विषय में पूर्ण रूप से कुछ भी ज्ञान न हो और न जानने की कोई इच्छा ही हो और न जाना
ही जा सकता हो | कितनी अद्भुत बात है न ? जिससे हमारा कोई परिचय ही नहीं, जिसे हम कभी जान भी नहीं सकते, उसी के प्रति प्रेम उपज गया... उसी के प्रति मन में
विश्वास उत्पन्न हो गया और समर्पित हो गए उसके प्रति... वही प्रेम, विश्वास और
समर्पण वास्तविक श्रद्धा है... और ये सभी एक दूसरे के पूरक भी हैं... और वहाँ फिर
किसी प्रकार के आडम्बर अथवा औपचारिकता के लिए भी कोई स्थान नहीं रह जाता...
सीधी सरल सी बात है, जिसे हम जान गए पूर्ण रूप से उसके तो फिर गुणों और
दुर्गुणों दोनों की ही ओर हमारा ध्यान जाएगा | हम भले ही कहते रहें कि किसी के
दुर्गुणों से हम पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता, क्योंकि हम तो गुणों के पारखी हैं और केवल दूसरे के गुण ही देखते हैं |
किन्तु ऐसा सम्भव ही नहीं है | सिक्के के एक पहलू को देखें और दूसरे को अनदेखा कर
दें ऐसा भला कभी सम्भव है ? और जब दूसरे पहलू को देखेंगे तो उस पर क्या चित्र
उकेरा हुआ है अथवा क्या लिखा हुआ उस पर भी ध्यान अवश्य जाएगा ही | बस वहीं हम उसके
असली और नकली की जाँच परख में लग जाते हैं |
यही बात प्रेम और
श्रद्धा के विषय में भी सत्य है | यदि किसी को हमने पूर्ण रूप में जान लिया तो
उसके प्रत्येक पक्ष पर हमारा ध्यान जाएगा, और फिर हम उसे गुणों और दुर्गुणों के तराजू पर तौलने लगेंगे | और जब इस
प्रकार का आकलन आरम्भ हो जाता है तो वहाँ श्रद्धा का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता,
क्योंकि वहाँ तो हम उसकी सत्यता और असत्यता – वास्तविकता और अवास्तविकता के फेर
में पड़ गए... वहाँ मित्रता हो सकती है, किन्तु मित्र के प्रति श्रद्धानत हों यह आवश्यक नहीं...
अस्तु, श्रद्धा उसी के प्रति हो सकती है जिसका हमें पूर्ण
ज्ञान न हो | और वही समर्पण का भाव होता है | ये समर्पण – श्रद्धा – प्रेम – उस
व्यक्ति अथवा वस्तु के प्रति भी हो सकता है जिसे हम पूर्ण रूप से जानते नहीं हैं |
प्रकृति के प्रति भी हो सकता है – क्योंकि प्रकृति स्वयं में कितने रहस्य समेटे
हुए है इसे आज तक कोई भी पूर्ण रूप से नहीं जान सका है | हमारे वैज्ञानिक भी अभी
शोधकार्यों में ही लगे हुए हैं | समस्त वैदिक ऋचाएँ प्रकृति के अनसुलझे रहस्यों की
साक्षी हैं | प्रकृति के रहस्यों से – उसके परिवर्तनशील रूपों से - हमारे ऋषि मुनि
इतने अधिक आश्चर्यचकित हो गए - और कदाचित भयभीत भी हो गए - कि श्रद्धानत होकर उनके
कण्ठों से प्रकृति के सम्मान में ऋचाएँ प्रस्फुटित हो उठीं और बड़े बड़े सूक्त
उन्होंने रच दिए |
और ये श्रद्धा हमारी
अपनी आत्मा – जिसे हम परमात्मतत्व अथवा परमात्मा भी कहते हैं – के प्रति भी हो सकती
है – क्योंकि जिस दिन आत्मा से साक्षात्कार हो गया उस दिन फिर मोक्ष की – निर्वाण
की स्थिति प्राप्त हो जाएगी... उस दिन हम उसी में लीन हो जाएँगे... क्योंकि वही तो
हमारा ध्येय है... जब ध्येय को प्राप्त कर लिया... एकाकार हो गए उसके साथ... तो
श्रद्धा – प्रेम – विश्वास – समर्पण – सारे शब्द निरर्थक हो जाएँगे – सारे भाव
अभाव बन जाएँगे – क्योंकि तद्रूप हो जाना अर्थात पूर्ण रूप से उसका ज्ञान हो
जाना...
https://www.astrologerdrpurnimasharma.com/2019/09/19/shraddha-love-faith-and-devotion/