ऋषि पञ्चमी और पर्यूषण पर्व
सोमवार 29 अगस्त, भाद्रपद शुक्ल द्वितीया को हरतालिका तीज का व्रत आरम्भ होगा और तीस अगस्त को उसका पारायण किया जाएगा | उसके बाद बुधवार 31 अगस्त से श्री गणेश चतुर्थी से गणपति की उपासना का दशदिवसीय पर्व आरम्भ हो जाएगा | 31 अगस्त - भाद्रपद शुक्ल पञ्चमी – से दिगम्बर जैन सम्प्रदाय का दशदिवसीय पर्यूषण पर्व – जिसे साम्वत्सरिक पर्व भी कहा जाता है – आरम्भ हो रहा है | सूर्योदय काल में क्योंकि पञ्चमी तिथि उसके दूसरे दिन यानी पहली सितम्बर को होगी अतः जो कि ऋषि पञ्चमी का उपवास पहली सितम्बर को रखा जाएगा | सर्वप्रथम सभी को इन पर्वों की अनेकशः हार्दिक शुभकामनाएँ...
जहाँ तक ऋषि पञ्चमी का प्रश्न है तो यह पर्व न होकर एक उपवास है जो सप्तर्षियों को समर्पित होता है | आरम्भ में सभी वर्णों का पुरुष समुदाय यह उपवास करता था, किन्तु अब अधिकाँश में महिलाएँ ही इस उपवास को रखती हैं | इस दिन स्नान आदि से निवृत्त होकर सातों ऋषियों की प्रतिमाओं को पञ्चामृत से स्नान कराया जाता है | उसके बाद उन्हें चन्दन कपूर आदि सुगन्धित द्रव्यों का लेप करके पुष्प-धूप-दीप-वस्त्र-यज्ञोपवीत-नैवेद्य इत्यादि समर्पित करके अर्घ्य प्रदान किया जाता है | अर्घ्य प्रदान करने के लिए मन्त्र है:
कश्यपोत्रिर्भरद्वाजो विश्वामित्रोय गौतम:
जमदग्निर्वसिष्ठश्च सप्तैते ऋषय: स्मृता:
गृह्णन्त्वर्ध्य मया दत्तं तुष्टा भवत मे सदा ||
अर्थात काश्यप, अत्रि, भारद्वाज, विश्वामित्र, गौतम, जमदग्नि और वशिष्ठ इन सातों ऋषियों को हम अर्घ्य प्रदान करते हैं, ये सदा हम पर प्रसन्न रहें |
इस व्रत में केवल शाक-कन्द-मूल-फल आदि का भोजन करने का विधान है | मान्यता है कि सात वर्ष तक निरन्तर जो व्यक्ति इस व्रत का पालन करता है उसे समस्त प्रकार का सुख सौभाग्य प्राप्त होता है | सप्तम वर्ष में इस व्रत का उद्यापन कियाा जाता है जिसमें सात ब्राह्मणों को आमन्त्रित करके उन्हें यथाशक्ति दान दक्षिणा आदि भेंट करके भोजन कराके विदा किया जाता है |
भाद्रपद कृष्ण द्वादशी को श्वेताम्बर जैन सम्प्रदाय के अष्टदिवसीय पजूसन पर्व का आरम्भ हुआ था – जिसे अष्ट+अह्निका होने के कारण अष्टाह्निका भी कहा जाता है | पजूसन पर्व समाप्त होते ही दूसरे दिन से भाद्रपद शुक्ल पञ्चमी से दिगम्बरों के दशदिवसीय पर्यूषण पर्व का आरम्भ हो जाता है, जो मंगलवार यानी तीन सितम्बर से आरम्भ हो रहा है तथा भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमा (अनन्त चतुर्दशी) को सम्पन्न होगा | इस पर्व का आध्यात्मिक महत्त्व इसके लौकिक महत्त्व से कहीं अधिक गहन है | जिस प्रकार नवरात्र पर्व संयम और आत्मशुद्धि का पर्व होता है, उसी भाँति पर्यूषण पर्व भी – जिसका विशेष अंग है दशलाक्षण व्रत - संयम और आत्मशुद्धि के त्यौहार हैं | नवरात्र और दशलाक्षण दोनों में ही त्याग, तप, उपवास, परिष्कार, संकल्प,
स्वाध्याय और आराधना पर बल दिया जाता है । यदि उपवास न भी हो तो भी यथासम्भव तामसिक भोजन तथा कृत्यों से दूर रहने का प्रयास किया जाता है | भारत के अन्य दर्शनों की भाँति जैन दर्शन का भी अन्तिम लक्ष्य सत्यशोधन करके उसी परमानन्द की उपलब्धि करना है | और इसे ही तत्वज्ञान कहा जाता है |
जैन धर्म के अन्तिम तीर्थंकर महावीर के आचार विचार का सीधा और स्पष्ट प्रतिबिम्ब मुख्यतया आचारांगसूत्र में देखने को मिलता है | उसमें जो कुछ कहा गया है उस सबमें साध्य, समता या सम पर ही पूर्णतया भार दिया गया है | सम्यग्दृष्टिमूलक और सम्यग्दृष्टिपोषक जो जो आचार विचार हैं वे सब सामयिक रूप से जैन परम्परा में पाए जाते हैं | गृहस्थ और त्यागी सभी के लिये छह आवश्यक कर्म बताए गए हैं | जिनमें मुख्य “सामाइय” (जिस प्रकार सन्ध्या वन्दन ब्राह्मण परम्परा का आवश्यक अंग है उसी प्रकार जैन परम्परा में सामाइय हैं) हैं | त्यागी हो या गृहस्थ, वह जब भी अपने अपने अधिकार के अनुसार धार्मिक जीवन को स्वीकार करता है तभी उसे यह प्रतिज्ञा करनी पड़ती है “करोमि भन्ते सामाइयम् |” जिसका अर्थ है कि मैं समता अर्थात् समभाव की प्रतिज्ञा करता / करती हूँ | मैं पापव्यापार अथवा सावद्ययोग का यथाशक्ति त्याग करता हूँ | साम्यदृष्टि जैन परम्परा के आचार विचार दोनों ही में है | और समस्त आचार विचार का केन्द्र है अहिंसा | अहिंसा पर प्रायः सभी पन्थ बल देते हैं | किन्तु जैन परम्परा में अहिंसा तत्व पर जितना अधिक बल दिया गया है और इसे जितना व्यापक बनाया गया है उतना बल और उतनी व्यापकता अन्य परम्पराओं में सम्भवतः नहीं है | मनुष्य, पशु पक्षी, कीट पतंग आदि जीवित प्राणी ही नहीं, वनस्पति, पार्थिव-जलीय आदि सूक्ष्मातिसूक्ष्म जन्तुओं तक की हिंसा से आत्मौपम्य की भावना द्वारा निवृत्त होने को कहा गया है | आत्मौपम्य की भावना अर्थात् समस्त प्राणियों की आत्मा को अपनी ही आत्मा मानना | इस प्रकार विचार में जिस साम्य दृष्टि पर बल दिया गया है वही इस पर्यूषण पर्व का आधार है | और इस प्रकार सम्यग्दृष्टि के पालन द्वारा आत्मा को
मिथ्यात्व, विषय व कषाय से मुक्त करने का प्रयास किया जाता है |
पर्यूषण पर्व की अट्ठाई में बीच में साम्वत्सरिक पर्व आता है जो पर्यूषण का ही नही वरन् जैन धर्म का भी प्राण है | इस दिन साम्वत्सरिक प्रतिक्रमण किया जाता है जिसके द्वारा वर्ष भर में किए गए पापों का प्रायश्चित्त करते हैं | साम्वत्सरिक प्रतिक्रमण के बीच में ही सभी चौरासी लाख जीव योनि से क्षमा याचना की जाती है | यह क्षमा याचना सभी जीवों से वैर भाव मिटा कर मैत्री करने के लिए होती है | क्योंकि इस पर्व में दश लक्षणों का पालन किया जाता है | ये दश हैं – क्षमा, विनम्रता, माया का विनाश, निर्मलता, सत्य अर्थात आत्मसत्य का ज्ञान – और यह तभी सम्भव है जबकि व्यक्ति मितभाषी हो तथा स्थिर मन वाला हो, संयम - इच्छाओं और भावनाओं पर नियन्त्रण, तप - मन में सभी प्रकार की इच्छाओं का अभाव हो जाने पर ध्यान की स्थिति को प्राप्त करना, त्याग - किसी पर भी अधिकार की भावना का त्याग, परिग्रह का निवारण और ब्रह्मचर्य - आत्मस्थ होना – केवल अपने भीतर स्थित होकर ही स्वयं को नियन्त्रित किया जा सकता है अन्यथा तो आत्मा इच्छाओं के अधीन रहती है - का पालन किया जाता है तथा क्षमायाचना और क्षमादान दिया जाता है और इसीलिए इसे क्षमावाणी पर्व भी कहा जाता है |
सच्चा सुख और सच्ची शान्ति प्राप्त करने के लिये एकमात्र उपाय यही है कि व्यक्ति अपनी जीवन प्रवृत्ति का सूक्ष्मता से अवलोकन करे | और जहाँ कहीं, किसी के साथ, किसी प्रकार भी की हुई भूल के लिये – चाहे वह छोटी से छोटी ही क्यों न हो – नम्रतापूर्वक क्षमायाचना करे और दूसरे को उसकी पहाड़ सी भूल के लिये भी क्षमादान दे | सामाजिक स्वास्थ्य के लिये तथा स्वयम् को जागृत और विवेकी बनाने के लिये यह व्यवहार नितान्त आवश्यक और महत्त्वपूर्ण है | इस पर्व पर इसीलिये क्षमायाचना और क्षमादान का क्रम चलता है | जिसके लिये सभी जैन मतावलम्बी संकल्प लेते हैं “खम्मामि सव्व जीवेषु सव्वे जीवा खमन्तु में, मित्ति में सव्व भू ए सू वैरम् मज्झणम् केण वि |” अर्थात् समस्त जीवों को मैं क्षमा करता हूँ और सब जीव
मुझे क्षमा करे | सब जीवों के साथ मेरा मैत्री भाव रहे, किसी के साथ भी वैर-भाव नही रहे | और इस प्रकार क्षमादान देकर तथा क्षमा माँग कर व्यक्ति संयम और विवेक का अनुसरण करता है, आत्मिक शान्ति का अनुभव करता है | किसी प्रकार के भी क्रोध के लिये तब स्थान नहीं रहता और इस प्रकार समस्त जीवों के प्रति प्रेम की भावना तथा मैत्री का भाव विकसित होता है | आत्मा तभी शुद्ध रह सकती है जब वह अपने से बाहर हस्तक्षेप न करे और न ही किसी बाहरी तत्व से विचलित हो | क्षमा-भाव इसका मूलमन्त्र है | यह केवल जैन परम्परा तक ही नहीं वरन् समाजव्यापी क्षमापना में सन्निहित है | मन को स्वच्छ उदार एवं विवेकी बनाकर समाज के संगठन की दिशा में इससे बड़ा और क्या प्रयत्न हो सकता है |
अस्तु, इसी के साथ समस्त चराचर से क्षमायाचना सहित सभी को ऋषि पञ्चमी और पर्यूषण पर्व की
हार्दिक
शुभकामनाएँ...