वाराह काल और वाराह जयन्ती
भाद्रपद शुक्ल तृतीया यानी मंगलवार तीस अगस्त को हरतालिका तीज का व्रत और भगवान् विष्णु के दस अवतारों में से तृतीय अवतार वाराह अवतार की जयन्ती का पावन पर्व है | दोनों पर्वों की सभी को हार्दिक शुभकामनाएँ...
हरतालिका तीज के दिन महिलाएँ अपने पति तथा परिवार की मंगल कामना से दिन भर निर्जल व्रत रखकर शिव पार्वती की उपासना करती हैं | इसके विषय में बहुत सी कथाएँ भी प्रचलित हैं | किन्तु इस पर्व के मर्म में पति तथा परिवार की मंगल कामना ही है | साथ ही ऐसी भी मान्यता है कि यदि कुमारी कन्याएँ इस व्रत के द्वारा शिव पार्वती को प्रसन्न करती हैं तो उन्हें मनोनुकूल पति प्राप्त होता है |
भगवान् विष्णु के वाराह अवतार के विषय में भी अनेक उपाख्यान उपलब्ध होते हैं | वाराह कल्प के अनुसार सृष्टि के आरम्भ में तीन चरणों में पृथिवी की खोज तथा पृथिवी को निवास के योग्य बनाने का उपक्रम आरम्भ हुआ | उन तीनों ही चरणों में भगवान् विष्णु के तीन अलग अलग अवतार हुए | ये तीनों काल तथा अवतार वाराह नाम से जाने जाते हैं – नील वाराह काल, आदि वाराह काल और श्वेत वाराह काल | उस समय में वाराह नाम की मनुष्यों की एक प्रजाति हुआ करती थी जिसमें भगवान विष्णु ने वाराह के रूप में अवतार ग्रहण किया था | यद्यपि ऐसी भी मान्यता है कि इस अवतार में शिरोभाग वाराह का है और शेष शरीर मनुष्य का जो अपनी सूँड पर पृथिवी को धारण किये हुए है | किन्तु हमारी स्वयं की मान्यता है कि वाराह प्रजाति के मानवों का स्वरूप कुछ वाराह से मिलता जुलता रहा होगा | मनुष्यों की यह प्रजाति इतनी अधिक बलिष्ठ थी कि बड़ी से बड़ी विपत्ति का डटकर सामना कर उन्हें परास्त करके पुनः पृथिवी पर समस्त व्यवस्थाओं की पुनरस्थापना करने में सक्षम थी |
इस काल में समस्त देवी देवताओं का निवास पृथिवी पर ही था | भगवान् शंकर का कैलाश पर्वत, भगवान् विष्णु का हिन्द महासागर तथा ब्रह्मा का ईरान से लेकर कश्मीर तक सब कुछ इसी पृथिवी पर था | इसी समय अत्यन्त भयानक कभी न रुकने वाली जल प्रलय हुई और सारी धरती उस एकार्णव में समा गई | तब ब्रह्मा जी की प्रार्थना पर भगवान् विष्णु ने नील वाराह के रूप में प्रकट होकर धरती के कुछ भाग को जल से बाहर निकाला | कुछ पौराणिक आख्यानों के अनुसार नील वाराह ने अपनी पत्नी नयना देवी तथा वाराही सेना के साथ मिलकर तीखे दरातों, फावड़ों और कुल्हाड़ियों आदि के द्वारा बड़े श्रम से धरती को समतल किया | वैदिक श्रुतियों में यज्ञ पुरुष के रूप में वाराह अवतार का वर्णन उपलब्ध होता है और यज्ञ के समस्त अंग जैसे चारों वेद तथा यागों में प्रयुक्त किये जाने वाले समस्त पदार्थ यथा घृत, कुषा, स्त्रुवा, हविष्य, समिधा इत्यादि को उनके शरीर का ही अंग माना गया है | वास्तविक दृष्टि से यदि देखें तो पृथिवी का आततायियों से उद्धार करके पुनः नीतिसंगत व्यवस्थाओं की पुरस्थापना करना स्वयं में एक महान यज्ञ है – सम्भवतः इसलिए भी वाराह अवतार को यज्ञ पुरुष की उपाधि से विभूषित किया जाता है | कहते हैं कि प्रलयकाल का जल उतर जाने के बाद भगवान के प्रयत्नों से अनेक सुगन्धित वन और पुष्कर पुष्करिणी सरोवर निर्मित हो गए, अनेक वृक्ष और लताओं का जन्म हो गया और धरा पुनः वसुधा बन गई |
नील वाराह के उपरान्त आदि वाराह काल आता है | इस समय दिति और महर्षि कश्यप के दो असुर पुत्र हिरण्य कश्यप और हिरण्याक्ष ने ब्रह्मा जी से प्राप्त वरदान के कारण भयानक उत्पात मचाया हुआ था | दिति के गर्भ से उत्पन्न इन्हीं दोनों दैत्यों का वध करने के लिए भगवान् विष्णु ने वाराह के इस रूप में अवतार लिया था | इन दोनों दैत्यों ने अपने अहंकार के वशीभूत होकर पृथिवी को जल में डुबा दिया था, जिसका कुछ भाग भगवान विष्णु ने नील वाराह के रूप में अपनी सेनाओं के साथ मिलकर जल से निकाल कर समतल किया था और कुछ भाग को आदि वाराह के रूप में हिरण्याक्ष और हिरण्य कश्यप का वध करने के उपरान्त अपनी सूँड पर उठाकर – जो निश्चित रूप से उनके तथा उनकी सेनाओं के कुल्हाड़ी फावड़े जैसे
अस्त्र ही रहे होंगे - जल से बाहर निकाल कर पुनः स्थापित किया था | माँ भगवती के युद्धों में भी देवी की सेना में विशाल नारायणी और वाराही सेनाओं की चर्चा उपलब्ध होती है “वाराही नारसिंही च भीमं भैरवनादिनी” | इससे एक अर्थ यह भी ध्वनित होता है कि सम्भव है नील वाराह अवतार के समय उनके प्रयासों से जब धरती पुनः वसुमती हुई उस समय से लेकर वाराह काल में ही किसी समय मधु कैटभ का भी उदय हुआ होगा और पृथिवी तथा देवों की सम्पन्नता देखकर उनके मन में इस सब पर अधिकार का विचार आने पर उन्होंने आतंक मचाया होगा और भगवती ने समस्त नारायणी तथा वाराही सेना के साथ मिलकर उन दोनों असुरों का वध किया होगा |
आदि वाराह काल की समाप्ति के बाद श्वेतवाराह काल आता है | इसके विषय में कथा उपलब्ध होती है कि द्रविड़ राजा सुमति अपना राज्य पुत्रों को सौंपकर स्वयं तीर्थाटन के लिए चले गए थे जहाँ मार्ग में ही उनकी मृत्यु हो गई | सुमति का पुत्र विमति अपने नाम के अनुरूप ही उल्टी बुद्धि का था और उसने भी घोर आतंक मचाया हुआ था | तब उसे नष्ट करने के
लिए देवताओं की मन्त्रणा के परिणामस्वरूप महर्षि नारद ने उसे कहा कि क्योंकि तीर्थों के कारण उसके पिता का स्वर्गवास हुआ है अतः उसे सभी तीर्थों को नष्ट करके पिता के ऋण से मुक्त होना चाहिए | अधिकाँश तीर्थ उत्तर में थे अतः उसने उन्हें
नष्ट करने का निर्णय लिया | जिससे भयभीत होकर वहाँ के निवासी उत्तरी ध्रुव की ओर एक हिमाच्छादित स्थान पर चले गए जहाँ श्वेत वाराह के रूप में उन्हें भगवान विष्णु के दर्शन हुए और उन्होंने राजा विमति को परास्त किया |
जैन सम्प्रदाय में भी सुमति नाथ तीर्थंकर हुए हैं जिन्हें महाराज ऋषभदेव का प्रपौत्र और भरत का पुत्र माना जाता है | इसके अतिरिक्त भगवान विष्णु ने अपने अनन्य भक्त ध्रुव को उत्तरी ध्रुव का क्षेत्र प्रदान किया था | भगवान शंकर के पुत्र कार्तिकेय का स्थान भी यहीं माना जाता है | साथ ही यहाँ पर श्वेत वाराह नाम की एक जाति भी विद्यमान थी |
एक बात और ध्यान देने की है, जब भी कभी किसी अनुष्ठान के समय संकल्प लिया जाता है तो उसमें कहा जाता है “श्री ब्रह्मणोSह्नि द्वितीयपरार्धे श्री श्वेतवाराहकल्पे वैवस्वते मन्वन्तरे...” इत्यादि इत्यादि... जिसका अभिप्राय है कि ब्रह्मा के दिन के द्वितीय परार्ध में श्वेतवाराह नाम के कल्प में वैवस्वत मन्वन्तर में... इत्यादि इत्यादि... अर्थात इस समय ब्रह्मा के दिन के दूसरे भाग का श्वेतवाराह कल्प चल रहा है...
वाराह अवतार के विषय में वाराह पुराण, पद्मपुराण, महाभारत आदि पौराणिक ग्रन्थों में उपाख्यान उपलब्ध होते हैं | किन्तु व्यावहारिक और आध्यात्मिक दृष्टि से यदि देखा जाए तो यह घटना इस तथ्य की भी प्रतीक है कि व्यक्ति के भीतर का अहंकार ही उसके गहन तमस में डूबने का कारण बनता है | जब साधना के द्वारा मनुष्य को आत्मतत्व का ज्ञान हो जाता है तो वह अहंकार से मुक्त हो जाता है और उसका उत्थान हो जाता है |
हम सभी स्वस्थ व सुखी रहते हुए आत्मोत्थान की दिशा में अग्रसर रहें, इसी भावना के साथ सभी को एक बार पुनः हरतालिका तीज और वाराह जयन्ती
की अनेकानेक हार्दिक शुभकामनाएँ...