अभावों और पीड़ा को गान बना देने वाले प्रेम और विरह
के साधक, बादलों से सलाम लेने वाले,
विभावरी, आसावरी और अंतर्ध्वनि के गायक पद्मभूषण
श्री गोपालदास नीरज – जिनके गीतों, ग़ज़लों, दोहों के एक एक शब्द में – एक एक छन्द में मानों एक नशा सा भरा हुआ है...
जो कभी दार्शनिक अन्दाज़ में कहते हैं...
“नींद भी खुली न
थी कि हाय धूप ढल गई,
पाँव जब तलक उठे
कि ज़िन्दगी फिसल गई |”
तो कभी बुझते
दीयों को सूर्य बना देने की चाहत रखते हैं... कभी यथार्थ को पहचानते हुए हर स्थिति
में अपने लिए राह निकालते हुए प्यार और भाईचारे की सोच रखते हुए कहते हैं “अब तो
मज़हब कोई ऐसा भी चलाया जाए,
जिसमें इन्सान को
इन्सान बनाया जाए |
जिसकी ख़ुशबू से
महक जाए पड़ोसी का भी घर,
फूल इस क़िस्म का
हर सिम्त खिलाया जाए...”
तो कभी शान्ति की
आशा रखते हुए बोल उठते हैं...
“बढ़ चुका बहुत आगे रथ अब निर्माणों का,
बम्बों के दलबल
से अब अवरूद्ध नहीं होगा |
है शान्ति शहीदों
का पड़ाव हर मंज़िल पर,
अब युद्ध नहीं
होगा, अब युद्ध नहीं होगा...”
ऐसे चलते फिरते
महाकाव्य नीरज जी – जिनकी रचनाएँ मानव मात्र में ऊर्जा प्रवाहित कर देती हैं... जो
कहा करते थे “हिंदुस्तान में हवा गाती है… नदियाँ गाती
हैं… फूल गाते हैं… झरने गा रहे हैं… हर जगह गेयता है...” ऐसे महाकवि नीरज जी की
आज दूसरी पुण्यतिथि है... उनके गीत सदा हमारे दिलों में जीवित रहेंगे...
ऐसे जन मानस के
नायक गायक के लिए जो जीवन के रंगमंच के बड़े सधे हुए नायक थे... शत शत नमन... समर्पित
है श्रद्धा सुमन उन्हीं की एक रचना के साथ...
“मधुर तुम इतना ही कर दो !
यदि यह कहते हो मैं गाऊँ, जलकर भी आनन्द मनाऊँ
इस मिट्टी के पँजर में मत छोटा-सा उर दो !
मधुर
तुम इतना ही कर दो!
तेरी
मधुशाला के भीतर, मैं ही ख़ाली प्याला लेकर,
बैठा हूँ लज्जा से दबकर,
मैं पी लूँ, मधु न सही, इसमें
विष ही भर दो !
मधुर, तुम
इतना ही कर दो !”
शत शत नमन...