इस दीवाली आओगे न ?
मित्रों, चार नवम्बर को दीपावली का प्रकाश पर्व है... हम सभी के घर जगमगा रहे हैं बिजली के लट्टुओं से बनी लड़ियों से... सजे हुए हैं सुगन्धित पुष्पों की बन्दनवारों से...
ज्योति का पर्व अँधियारी रातों में दीप जलाएँ
मन उजास जग उठे दीपक सोए अँधियारा
पुष्प दीपों से बने बन्दनवार सजे हर द्वार
लक्ष्मी पूजन घर लाएँ मिठाई भोग लगाएँ
प्रसन्न करें लक्ष्मी प्रज्वलित कर बाती दीप की
अखण्ड दीप जगाएँ रात भर घर के मन्दिर में
खरीदें दीप फुटपाथ पर बैठी उस कुम्हारिन से
जो कहती है...
मैं ही हूँ लक्ष्मी सरस्वती दुर्गा
तीनों रूप देवी के समाहित हैं मुझी में...
बेचती हूँ मैं दीपक माटी के / बनाकर अपने
हाथों से
मिलाकर अपने परिश्रम की मिट्टी और पानी
फुटपाथों पर सोसायटीज़ के / अण्डरपास पर रेलवे ट्रैक के
फुटओवर ब्रिज पर चौराहों के
क्योंकि नहीं मिलती जगह बड़े बाज़ारों में...
गोद में थामे दुधमुंही बच्ची को...
पिलाते हुए दूध उघड़ जाता है जब वक्ष
कुछ मनचले देखते हैं बुरी नज़र से / करते हैं बदसलूकी
बनी दुर्गा कर देती हूँ धराशायी / जैसे किया था कभी महिसासुर को
बचाने को सम्मान अपना भी और उस दुधमुंही बच्ची का भी...
कभी कोई आता है भलामानुस / ख़रीदता है दीप आशा से भी अधिक
लक्ष्मी के समान खुश हो लुटा देती हूँ धन स्नेह का / समझ कर भाई अपना...
कभी कोई नन्हा बच्चा खड़ा होता है पास आकर मेरे
आँखों में लिए प्रश्नों की सौगात / कैसे बनाती हो इतने प्यारे फूलों से खिले खिले दीप ?...
और तब जाग उठती है ज्ञान की देवी सरस्वती मन में मेरे...
चढ़ाकर कच्ची मिट्टी चाक पर / बताती हूँ कि ऐसे
भरती हूँ रंग / और पकड़ाती हो बच्चे को
आँखों से बह निकलती है आनन्द के अश्रुओं की धार
देखकर प्रफुल्लित बालक का भोला मुखड़ा...
पर तभी सूख जाते हैं वे आँसू
जब क्रोधित और अहंकारी माँ उस बच्चे की
छीन कर फेंक देती है वो "अमूल्य" दीप हाथों से उसके
क्योंकि मिला है उसे उपहार फुटपाथ से
किसी आर्चीज़ की दुकान से नहीं...
टूट कर बिखर जाता है टुकड़ों में मेरा कोमल मन भी
पर फिर सोचती हूँ क्यों ? क्यों मैं टूटूं / क्यों मैं बिखरूं
क्योंकि मैं तो हूँ साक्षात लक्ष्मी सरस्वती और दुर्गा
ये मूर्ख जो जलाते हैं दीये ख़रीदकर महँगी दुकानों से
बनाए हैं मैंने ही तो / मिलाकर अपने तन की मिट्टी / आँसू का जल
चढ़ाकर भावनाओं के चाक पर...
जानती हूँ मैं, रंग लाएगी मेरी ये तपस्या / समझेगा अहंकारी मनुष्य
मेरे स्नेह के अपार धन को / रचना करने की मेरी योग्यता को
और किसी भी परिस्थिति में मेरी दुर्गा सी बहादुरी को...
ख़रीद ले जाएगा सारे ही दीप
तब मिट्टी की प्रतिमाओं के समक्ष / प्रज्वलित होगी मेरे ही दीपों की ज्योति...
क्यों, करोगे न सच्चा मेरा ये सपना...?
इस दीवाली आओगे न खरीदने मिट्टी के दिए...?
जो बेचती हूँ बैठकर फुटपाथों पर सोसायटीज़ के / अण्डरपास पर रेलवे ट्रैक के
फुटओवर ब्रिज पर चौराहों के / बिछाकर मैली सी चादर ज़मीन पर
क्योंकि नहीं मिलती जगह मेरी इन कृतियों को बड़े बाज़ारों में... ---------------कात्यायनी....