बात पिछले बरस की है... इसी
कोरोना के चलते देश भर में लॉकडाउन घोषित हो गया था... हर कोई जैसे अपने अपने घरों
में कैद होकर रह गया था... ऐसे में प्रवासी मजदूर – जो रोज़ कुआँ खोदकर पानी पीते
हैं – जिन्हें आम भाषा में “दिहाड़ी मजदूर” कहा जाता है - दिल्ली में या और भी जिन
शहरों में थे उन सभी को चिन्ता सतानी स्वाभाविक ही थी कि जब सब कुछ बन्द है तो
हमारा तो सारा काम ठप्प हो गया... कहाँ से हमें मजदूरी मिलेगी... कहाँ से हम सब्ज़ी
या और दूसरी चीजों का ठेला लगाएँगे... जो कहीं फैक्टरियों में काम करते थे वहाँ भी
काम बन्द हो जाने के कारण बहुत से लोगों की नौकरियाँ चली गईं... इस सबसे घबराए हुए
थे कि किसी ने अफवाह फैला दी कि सरकार ने प्रवासी मजदूरों को उनके गंतव्यों तक
पहुँचाने के लिए बसों और रेलगाड़ियों की व्यवस्था की है... घबराए हुए ग़रीब अपना
बोरिया बिस्तर उठाकर परिवारों के साथ बस अड्डों और रेलवे स्टेशनों की तरफ भाग
निकले... लेकिन वहाँ देखा तो ऐसा कुछ भी नहीं था, आख़िर उन्होंने मीलों का
सफ़र पैदल ही तय करने की ठानी और चल पड़े... भूखे प्यासे चलते हुए मार्ग में न जाने
कितने लोग अपनी जान से हाथ धो बैठे... बड़ा दु:खी होता था मन ये सारे समाचार देख
सुनकर... तभी ये कुछ लिखा था, जो आज यहाँ प्रस्तुत किया है...
“कम्मो... अरी
क्या हुआ...? कुछ बोल तो सही... कम्मो... देख हमारे पिरान
निकली जा रहे हैं... बोल कुछ... का कहत रहे साम...? महेस कब
लौं आ जावेगा...? कुछ बता ना...” कम्मो का हाल देख घुटनों के
दर्द की मारी बूढ़ी सास ने पास में रखा चश्मा चढ़ाया, लट्ठी
उठाई और चारपाई से उतरकर लट्ठी टेकती कम्मो तक पहुँच उसे झकझोरने लगी | लेकिन कम्मो तो जड़ बनी थी |
बहू का ये हाल देख सास के
सब्र का बाँध टूटता जा रहा था और उसने और अधिक जोर से बहू को झकझोरना शुरू कर दिया
था | फिर
बहू के हाथ से मोबाइल लेकर देखा - बत्ती जल रही थी - मतलब मोबाइल ऑन था । कान के
पास लगाया और “हेलो साम... साम...” लेकिन बत्ती अचानक बुझ गई थी - बूढ़ी की आवाज़
सुन जैसे कॉल काट दी थी |
बूढ़ी को शायद कुछ समझ आ गया
था । “ओ मैया री...” बूढ़ी के मुँह से एक हाय सी निकली और हथेली में मोबाइल दबाकर
पेट को दूसरी हथेली से दबाकर बैठ गई | किसी अनहोनी की आशंका से
उसका पूरा शरीर काँप रहा था |
पाँच बरस की कम्मो की बिटिया
लाडली माँ और दादी को बड़े ध्यान से देख रही थी | फटी हुई फ्रॉक का ठुक्का
मुँह में दबाए हुए माँ के पास पहुँची और उसके कन्धे पर झूलती मचलती हुई बोली
“अम्मा कब आएँगे पिताजी... भोत सारी चाकलेट लावेंगे न...? मैंने
तो सबको बता दिया है कि पिताजी हर बरस की तरियों इस बरस भी सबके वास्ते चाकलेट
लेके आ रहे हैं... बता ना अम्मा कब लौं पहुँचेंगे पिताजी...?” लाडली कम्मो के सामने मचलने लगी तो कम्मो ने शून्य दृष्टि से बेटी को
निहारते हुए “तड़ाक...” से एक झन्नाटेदार थप्पड़ उसके गाल पर रसीद कर दिया | बेटी माँ के ऊपर से उतर गई और अपना गाल सहलाती हुई चुपचाप एक तरफ जाकर खड़ी
हो गई | प्रश्नवाचक दृष्टि से बारी बारी से माँ और दादी को
निहार रही थी – मानों जानना चाह रही थी कि आखिर मैंने किया क्या है जो इतने जोर का
थप्पड़ मुझे रसीद किया ?
कुछ देर ऐसे ही दोनों को
देखती रही, फिर धीरे से उठकर माँ और दादी के पास आई और दोनों के गालों
पर प्यार से अपनी छोटी छोटी हथेलियाँ घुमाने लगी |
“ओ मैया री...
क्या करें अब... कहाँ जाएँ...?” पड़ोस के दो तीन घरों से दिल
दहला देने वाला चीत्कार सुनाई पड़ना शुरू हो गया | कम्मो ने
धीरे से लाडली को अपनी गोद में बैठा लिया, दूसरे हाथ से सास
का सर सहलाना शुरू कर दिया... और उसी तरह सूनी आँखों से किन्हीं ख़यालों में खो
गई...
सात बरस पहले बियाह कर आई थी
इस घर में | माँ के घर भी और यहाँ भी मरद लोग सहरों में जाकर मेहनत
मजूरी करते थे, औरतें गाँव में बड़े घरों में कुछ पीसने
पिसाने का, पानी भरने का काम कर दिया करती थीं | फसल की बुवाई कटाई के वक़्त सारे मजदूर सहर से वापस लौट आते थे और खेतिहर
लोगों के खेतों में जाकर फसल बोने काटने का काम करते थे | काम
के बदले में इन्हें कुछ पैसे और कुछ अनाज मिल जाया करता था जिससे इन्हें काफी
सहारा मिला करता था | ये दिन इन लोगों के लिए जैसे ख़ुशी के
दिन हुआ करते थे | मरद लोग अपने घरों पर जो होते थे अपनी
बीवी बच्चों के साथ | औरतों आदमियों की हँसी ठिठोली और
बच्चों की धमा चौकड़ी से सारा गाँव जैसे मस्त हो रहता था | जेबों
का ध्यान रखते हुए तरह तरह के पकवान इन दिनों बनते रहते थे | फसल का काम हो जाने पर वापस सहर लौट जाते थे मेहनत मजदूरी करने और अगले
बरस गाँव वापस लौटने का इंतज़ार करने में |
दो बरस पीछे लाडली आ गई थी
गोद में | प्यार
से बच्ची का नाम लाडली ही रख दिया था | इस बार तो पति पत्नी
ने योजना बनाई थी कि फसल की कटाई के बाद जब महेस सहर वापस लौटेगा तो कम्मो और
लाडली भी उसके साथ जाएँगी | वहाँ जाकर लाडली को किसी अच्छे
इस्कूल में पढ़ाएँगे | यहाँ गाँव में तो माहौल बड़ा बुरा है |
बिटिया को इस माहौल से दूर ले जाना है | और
परदेस में रहेंगे तो कुछ माडर्न भी बन जाएँगे | लाडली के
इस्कूल जाने के बाद कम्मो भी लोगों के घरों का साफ़ सफाई का काम पकड़ लेगी | दोनों मिलकर कमाएंगे तो थोडा पैसा भी बचा लेंगे – कल को लाडली का बियाह भी
तो करना है | लेकिन अम्मा का क्या होगा ?
“अरे हमारी
फिकर ना करो... हमें बस फसल के बखत आके मिल जाया करना... और कुछ पैसे भेजते रहा
करना... यहाँ सभी तो हैं हमारी देखभाल की खातर... तुम्हें बहुत कुछ करना है... तुम
दोनों परदेस जरूर जाओ...” माँ ने कहा था |
है न कितनी मजेदार बात – इन
लोगों के लिए बड़ा सहर ही परदेस था... कितनी छोटी सी दुनिया थी इन लोगों की और
कितनी छोटी छोटी आशाएँ और ज़रूरतें...
यादों को थोड़ा रोककर कम्मो
ने अपनी सास और बिटिया की तरफ देखा... मानों पूछ रही हो अब क्या होगा...? पड़ोस के
घरों से आ रही रुदन की आवाजों को सुना... और सर दीवार से टिका लिया... एक लम्बी
साँस ली और यादों का काफ़िला फिर से चल निकला...
दस मई की टिकट बुक कराई थी
महेस ने गाँव वापसी की | तभी मरा पता ना कहाँ से ये करोना आ गया |
गुसाईं जी के लोग बता रहे थे चीन से आया था | जब
चीन से आ रहा था तो उसे रोका क्यों नहीं गया ? महेस के आने
का इंतज़ार था | फोन पर कहा था उन्होंने “हम बस इग्यारह मई की
रात लौ पहुँच जावेंगे | लाडली और उसके उन बंदरों के वास्ते
चाकलेट और खिलौने ला रहे हैं... बताए दीजो ओका... और हाँ, ओका
वास्ते अच्छे अच्छे कपड़न भी लाए रहे हैं... वो हमारी मेमसाब बहुत ही अच्छी हैं...
अपनी बिटिया के पुराने सारे कपडे और खिलौने हम लोगों के बच्चन के वास्ते गिफ्ट में
दे दिए...”
“हम... और हमार वास्ते...” ख़ुशी से
इठलाते हुए कम्मो ने पूछा था |
“अरे तोहार
वास्ते तो हम आए रहे हैं न...” हँसते हुए महेस बोला “और साथ में लाए रहे हैं तोहार
वास्ते साड़ियाँ, चूड़ियां, सिंदूर की
डिबिया, अम्मा के वास्ते धोती और मूठ वाली लट्ठी... अब
घुटनों के दरद की वजह से लट्ठी से चलती है तो सोचा मूठ वाली ही ले आते हैं...”
“और अम्मा का
दरद का तेल ले लिया था...? कम्मो ने पूछा |
“अरे हाँ हाँ
ले लिए थे...” हँसते हुए महेश ने जवाब दिया “देखना तेल लगाते ही अम्मा क्या घोड़े
की तरियों दौड़ने लगेगी...” और दोनों पति पत्नी ठठाकर हँस पड़े थे “हम जानत हैं
कम्मो, तू लाल साड़ी, लाल चूड़ी, लाल बिंदी, लाल सिंदूर और काले मंगलसूत्र में
बिल्कुल हाल की बियाई लगेगी...” भाव विभोर हो महेश बोल रहा था और कम्मो इधर शरमा
कर सिकुड़ती जा रही थी |
“अच्छा
सुनो...” बीच में रोकते हुए कम्मो बोली “सुना है यो बीमारी बड़ी जल्दी दूसरों से
लगे है... सम्हाल के रहियो उहाँ...”
“हाँ हाँ तुम
कोनों फिकर ना करो...”
“अच्छा सुनो
तो... तुम लौट अइयो तो हियाँ उतनी आमदनी थोड़े होगी...”
“अरी पगली...
बाद में आवेंगे न परदेस... जब सब ठीक हुई जईहै... और सुन, हियाँ
तो हम बस “मजदूरन” है न... दिहाड़ी मजदूर... जोन चाहे हमें दुत्कार दे... जोन चाहे
माँ बहन की सुनाए दे... कोनो इज्जत थोड़े है हियाँ... पर का करिहैं... तुम सबकी
ख़ातिर और इस पेट की ख़ातिर काम तो करनो ही पड़ेगो... पर इत्ते यो करोना है इत्ते तो
अपने घर गाँव माँ इज्जत से चार दिन गुजार लें... और फिर पगली... अपने गाँव में तो
इज्जत से मरना भी भला लगेइगो...” पति के स्वर का दर्द कम्मो समझ गई थी और आज ज़मीन
पर घुटनों में सर दिए पति के उसी दर्द को महसूस कर रही थी...
बात हो गई तो सास ने चश्मे
के पीछे से देखते हुए पूछ ही लिया “महेस का फोन रहा... का कहत है... कब आ रओ
है...”
“इग्यारा को
अम्मा...” बोल तो गई पर आवाज़ रुंध रही थी |
“अच्छी बात
है... अबकी वो जावेगा तो तुम दोनों भी साथ चली जाना... पैसा कमाना... लाडली को
पढ़ाना लिखाना... हमरी चिन्ता फिकर को ना करना... इहाँ सब बड़े भले जन हैं... देखो न
कितना ख़याल रखें हैं हम सबका... और फिर फसल के बखत तो आ ही जाओगे... पर अबकी बार
गोद भराके अइयो... लाडली की देखभाल के वास्ते भाई मिल जावे तो मैं आराम से मरूँ...
तुम्हारा परिवार पूरा हो जावेगा न...” और एक सन्तोष की साँस लेकर चारपाई में धँस
गई थी | सास की दूसरे बच्चे की बात सुनकर कम्मो लाज और ख़ुशी
से अपने में सिमट कर बैठी रही थी |
मेहनत मजूरी करते थे, दूसरों के
पुराने कपड़ों और दूसरी पुरानी चीज़ों पर गुज़ारा करते थे, पर
फिर भी शान से रहते थे... मेहनत की शान... मजूरी की शान... किसी के आगे हाथ तो
नहीं फैलाते थे...
लाडली को भूख लगी थी | माँ को हिला
रही थी | बड़ी मुश्किल से अपने जड़ बन चुके शरीर को उठाया और
छीके में रखी सूखी रोटी पर पानी और नमक चुपड़कर बेटी के हाथ में थमा दिया | सास की ओर देखा... उसका सर सहलाया... और दोनों सास बहू एक दूसरे को सूनी
आँखों से निहारती बैठ रहीं | यादें फिर से चालू हो चुकी
थीं...
“हाँ, लाडली के पापा कैसे हो तुम...? सेहत तो ठीक है न
तोहार...?” परसों दिन में महेश का फोन आया था तो फोन उठाते
ही सबसे पहले कम्मो ने यही प्रश्न किया |
“हाँ हम ठीक हैं... हम चार पाँच
दिनन में पहुँच जावेंगे...”
“पर तोहार
टिकट तो दस मई की है न...?” पति के आने की ख़बर से मन ही मन
खुश होती कम्मो ने पूछा |
“हाँ थी तो
दसेई की, पर हियाँ सारी फैकटरीयाँ सरकार ने बन्द कर दीन
हैं... अब कोनो काम काज तो है ना... रेलें भी बन्द हैं... ना जाने सब कब तक
खुलेगा... हुआँ घर गाँव पोहोंच कर कमसकम फसल का ही देख लेंगे... कुछ नाज... कुछ
पीसा तो हो जावेगा... जब हियाँ खुलेगा तब लौट जावेंगे... और या बेर तो तू भी आवेगी
हमरे साथ मेरी रानी...” प्यार से महेश बोला और फोन काट दिया |
काम काज ठप्प हो जाने का
सुनकर दोनों सास बहू परेशान तो हो गई थीं, पर महेश की बातों से
आश्वस्त भी थीं कि इतने ये कोरोना का चक्कर चल रहा है इतने अपने घर में रहेगा |
बाद में कम्मो और लाडली को लेकर वापस शहर लौट जाएगा | एक खुशहाल भविष्य की आशा में दोनों ने दिन में ही न जाने कितने सपने बन
डाले थे |
रात को फिर से फोन आया महेश
का “सुनो हम सबही हियाँ से चल रहे हैं...”
“कैसे...?
टरेन तो बन्द हैं, फिर कैसन...?” कम्मो ने पूछा |
“हम सब पैदल आ
रहे हैं...”
“पैदल...?
इतनी दूर...? ई का कहत हो लाडो के पापा...
कैसे करोगे...?”
“वैसे ही जैसा
सब कर रहे हैं... बस यो समझ ले चार से पाँच दिनन में हम सबही पहोंच जावेंगे...
लाडो को और अम्मा को बता दीजो...” और बात पूरी हो गई थी |
तभी अब ये साम का फोन...
क्या है ये सब...? नहीं ये नहीं हो सकता... चीख पड़ी कम्मो... ऐसी,
कि दहल उठीं उसकी सास और बेटी उसकी चीख सुनकर... पर क्या कर सकती
थीं... हर घर का यही हाल था... कम से कम दस लोग इसी गाँव के थे जो सहर से एक साथ
गाँव के लिए निकले थे... रात हो गई तो सोचा यहीं रास्ते में रुक जाते हैं... पर
कहाँ...? यहाँ तो दूर दूर तक कोई बस्ती का न अता न पता...
जंगल में रात को सो गए तो कोई साँप बिच्छू डस सकता है... चलो यहाँ रेल की पटरियों
का तकिया बनाकर सो जाते हैं... रात में कौन टरेन आएगी... और आ भी गई तो उसकी आवाज़
से आँख अपने आप खुल जाएगी... कम से कम साँप बिच्छू से तो बच जाएँगे...
पर आठ दस घंटे से चलते चलते
इतना ज़्यादा थक कर चूर हो चुके थे कि नहीं सुनाई दी मालगाड़ी की सीटी... और एक झटके
के साथ जब ट्रेन रुकी तो...
इधर उधर बिखरी सूखी रोटियाँ, जिनसे
रास्ते भर भूख मिटाते आए थे... चारों तरफ बिखरे सामान में बीवी सदा सौभाग्य का
प्रमाण उसकी मांग का सिंदूर – माथे की लाल बिंदी – हाथों की लाल चूड़ियां – में
साहब की दी हुई पुरानी लाल साड़ी और सोम बाज़ार से दस रुपल्ली में खरीदा
मंगलसूत्र... लाडली की चाकलेट और कपडे – जो मालिकों की बीवियों ने दया करके दिए
थे... माँ की मूठ वाली लट्ठ और दरद के तेल की सीसी – जो मंगल बाज़ार से सस्ते में
खरीद ली थी... और इन्हें निर्जीव आँखों से निहारता टुकड़ों में बिखरा तन... और वहाँ
घर गाँव में घुटनों में सर दिए ज़मीन पर पसरी बीवी... सूने में ताकती बुड्ढी माँ...
और पिता के आने की बात जोहते बच्चे...