जब तक ये पत्र तुम्हारे हाथ में होगा, मैं अर्पणा और खुशबू को लेकर जा चुका होऊंगा, एक नए शहर में। सच पूछो तो ये ट्रांसफर मैंने जानबूझकर और ज़िद कर के लिया था वर्ना मेरा सबकुछ ठीक चल रहा था ऑफिस में। बल्
अपराजिता - जीवन की मुस्कराहटबड़े शहर से शादी करके आई अपराजिता जब से अपने ससुराल एक छोटे से गांव में आई तब से देख रही थी ससुराल में उसकी बुजुर्ग दादी सास का निरादर होता हुआ। ससुराल में उसके पति वि
लडका अपनी छोटी बहन के साथ बाजार से जा रहा था।अचानक से उसे लगा की, उसकी बहन पीछे रह गयी है।वह रुका, पीछे मुडकर देखा तो जाना कि, उसकी बहन एक खिलौने के दुकान के सामने खडी कोई चीज निहार रही है।लडका पीछे आ
मां - बाप तो हमसे बराबर ही प्यार करते है .. बस फर्क इतना सा है . . . . माँ का प्यार हमें दिख जाता है . . पिता के डांट से बचाते वक्त ...
आज सब्जी में नमक ज्यादा है,चावल थोड़ा गीले हो गए हैंरोटी जल गई ,चाय में मीठा कम हैभोजन तो अच्छा है, स्वाद नहीं है।अभी तो मैंने पोछा लगाया हैगीला तौलिया बिस्तर पर फेंका हैकितना काम करू, मैं भी इंसान हूँ
यह कहानी है एक छोटे से परिवार की जो अपने जीवन के फैसले लेने से पहले यह सोचता है की समाज क्या सोचेगा? उन्हें अपनी खुशियों से ज्यादा समाज की विचारधारा का ध्यान रखना ज्यादा जरुरी लगता था | लेकिन जब एक प
एक नौ वर्षीय बालक काशी के मणिकर्णिका घाट की सीढ़ियों पर बैठा हुआ था | उसकी आँखों से निकले हुए आंसू जो आग की गरमाहट से सूख से गए थे लेकिन उसका हृदय अभी भी विचलित था | घाट पर जल रही अनेकों चिताओं से निकल
यह कहानी पूरी तरह से काल्पनीक है और ये सिर्फ मनोरंजन के लिए लिखा गया है । इस का किसी के लाइफ से कोई लेना देना नहीं हैं । हाँ ! अगर इस कहानी से आपको कुछ अच्छा सिखने को मिले , तो आप उसे अपने अंदर
यह कहानी है एक ऑटो वाले और एक नवयुवक प्रशांत की जो उस रात अपने घर को जल्दी पहुंचना चाहते थे। लेकिन भाग्य को कुछ और ही मंजूर था इसीलिए उस दिन उन दोनों का अंतिम सफर था । इस कहानी को उस दिन की सुबह से
पत्र लेखन का जमाना, बदल गया चलन आज। कल लिखते बातें कितनी, जो बयां नहीं करते उतनी।। दूर होने पर आती याद, पत्र लेखन करते फरियाद। मनमीत की याद में आंसू, निकलते थे दिन रात।। कभी बेटी को शादी बाद, आती थी म
दूर होते चरण, खोखले आचरण, बोल- वाणी से गायब सदाचार है।लाभ-हानि की गणना से है वास्ता,हित-अहित से जुड़ा मान-सत्कार है।।संस्कारों की शिक्षा है निष्फल यहां,आधुनिकता में तर्कों की भरमार है।सीख का, सभ्
किस्सा है अमरावती का, वैसे अमरावती अभी तो 72 वर्ष की है पर यह घटना पुरानी है। अमरावती करीब 64-65 वर्ष की रही होंगी | झारखण्ड के एक छोटे से शहर सूरजगढ़ में अमरावती अपने पति राम अमोल पाठक के साथ रहती थी
किस्सा है अमरावती का, वैसे अमरावती अभी तो 72 वर्ष की है पर यह घटना पुरानी है। अमरावती करीब 64 वर्ष की रही होंगी | राम अमोल पाठक जी प्रकाश पब्लिकेशन में एडिटर थे, बड़े ही सज्जन और ईमानदार व्यक्ति थे सभी
किस्सा है अमरावती का, वैसे अमरावती अभी तो 72 वर्ष की है पर यह घटना पुरानी है। अमरावती करीब 42-45 वर्ष की रही होंगी वो अपने पति राम अमोल पाठक जी और चार बच्चों बड़ा बेटा चन्दन, बेटी पूर्णिमा,मंझला बे
नारी तू ही नारायणी,मां, जननी, जगदम्बा।नारी से होता संसार,नारी की महिमा अपार।।नारी होती है स्वयं शक्ति,होते हैं इसके विभिन्न रूप।जरूरत खुद पहचानने की,होते हैं क्या इसके स्वरूप।।नारी दुर्गा नारी ही शक्त
किस्सा है अमरावती का, वैसे अमरावती अभी तो 72 वर्ष की है पर यह घटना पुरानी है। अमरावती कोई बीस वर्ष की रही होगी और बिहार के एक गांव, अपने ससुराल में अपने पति राम अमोल पाठक, नवजात शिशु चन्दन और जेठानी क
राम अमोल पाठक जी बिहार के एक गांव के भरे-पुरे परिवार से थे | गांव में आँगन वाला सबसे ऊँचा मकान राम अमोल पाठक जी का था, घर पर पिताजी,भैया-भाभी, एक प्यारी सी भतीजी और बीवी अमरावती थी, अभी-अभी राम अमोल
हे पितरों! स्वीकारो नमन हमारा,तुमसे ही है ये अस्तित्व हमारा,देना सदा आशीष हमें तुम,हम हैं छोटा सा अंश तुम्हारा।वैसे तो हर दिन हैं आप,सूक्ष्म रूप में साथ हमारे,पितृ- पक्ष में स्वागत आपका,मिलकर करते हम
मैं भूखा हूं प्यार का ,मुझे सहारा चाहिए।मुझे अनाथ ना कहे कोई,इससे छुटकारा चाहिए।मैंने नही किया कोई पाप,मैं किसी के कर्मों का फल हूं।मैं किसी मां-बाप की ,असमय मृत्यु के का जीवन हूं।मैं चाहता हूं मुझे,&
जिंदगी का सफर अनिश्चित है,एक राह की तरह।हम अनजान हैं इस सफर पर,एक राही की तरह।मिलेंगे कब मोड़ इस राह में,हमें नहीं पता होता है।कहां गिरि और कहां सरिता,यह सफर की अनिश्चितता का दौर होता है।।कहां मिलेंगे