अब गॉंव में चौपाल नहीं लगती,
दोपहर में ताशों की महफ़िल नहीं सजती,
कबूतर बोलते हैं गुटरगूँ हवेली की मुंडेरों पर,
अब किसी कुएं पर पानी के लिए भीड़ नहीं लगती।
जब ठण्ड के दिनों में अलाव था जलता,
बच्चे और बूढ़े आ बैठते थे चारों ओर,
गॉंव भर के समाचार कहे जाते थे वहाँ,
किस्सों और कहानियों का चलता था दौर।
उजाड़ हो गए वो घर ,
जहाँ कभी बच्चे करते थे ठिठोलियाँ,
ताले लगे रह गए दरवाजों पर,
गिर गईं हैं छत, उग आईं हैं घास की क्यारियाँ।
अच्छी तरह याद हैं गर्मियों के वो दिन,
शाम को छत पर पानी का छिड़काव था होता,
चलती थी मंद मंद पवन चाँदनी रात में,
पूरा परिवार एक साथ छत पर था सोता।
दिखाए जाते थे ध्रुव तारा,
और सप्तऋषि आसमान में,
बताई जाई थीं उनकी कहानियां,
जो अब तक ताज़ी हैं दिलों जहाँ में।
बहुत याद आते हैं वो दिन वो गॉंव,
सुबह सुबह मुर्गे की बाँग,
दोपहर में पीपल की छाँव,
और रात में खुला आसमाँ।
आ गया हूँ सीमेन्ट और कांक्रीट के जंगल में,
जहाँ न शुद्ध हवा नसीब है न पेड़ों की छाँव,
अटक के रह गया हूँ चौबीस मंजिल के एक घोंसले में,
जहाँ न पैर जमीं पर हैं और न सर पर आसमां।
©प्रदीप त्रिपाठी "दीप"
ग्वालियर(म.प्र.)