क्यों ज़ेहन में बार बार
आती है गाँव की याद
फिर धीरे धीरे बन जाती है
वो यादों की बारात।
गर्मियों की छुट्टी लग जाना
ट्रेन में बैठ कर गाँव को जाना
जाते ही खेल में मस्त हो जाना
और सबसे मिलकर खूब बतियाना।
वो धवल चाँदनी रातों में
मंद बयार में छत पर सोना
एक एक कर तारों को गिनते जाना
और चाँद में चरखा चलाती बुढ़िया को ढूँढ़ना।
सुबह उठते ही दोस्तों के साथ
बाग की तरफ भाग कर जाना
गिरे हुए जामुन खाकर जीभ दिखाना
और खट्टे मीठे आम तोड़कर खाना।
घर में पली बकरी को चारा खिलाना
उसके बच्चों के सिर से पंजा लड़ाना
बकरी का दूध निकालना
फिर गटा गट पी जाना।
कच्चे आम भून कर पना बनाना
बाकियों को भूसे में दबा आना
कुछ दिन बाद उनका मीठे आम बन जाना
और फिर बाल्टी में डालकर रसीले आम खाना।
गर्मियों की दोपहर में
बड़ों का चौपाल में फड़ लगाना
मनोरंजन के लिए ताश को फेंटा जाना
और फिर हार जीत पर क़हक़हे लगाना।
बच्चों द्वारा गुट्टा और लँगड़ी खेलना
तिउरी में गोटियाँ सजा कर चाल चलना
इमली के बीज तोड़कर उनसे
अष्टा चंगा खेलकर आनंदित होना।
शाम को दोस्तों के साथ
मैदान में निकल जाना
गुल्ली-डण्डा खेलना तथा कंचों पर निशाना लगाना
और गेंद द्वारा सितौलिया फोड़कर हर्षित हो जाना।
साँझ ढले घर की ओर दौड़ लगाना
आकर माँ से लिपट जाना
माँ के आँचल में पसीना पोंछ देना
और कहना माँ भूख लगी है जरा खाना तो देना।
अरे! मैं तो डूब गया था गाँव की यादों
और अपने जज़्बातों में
अब कोई नहीं रह गया है अपना वहाँ
और गाँव रह गया है सिर्फ़ यादों में।
©प्रदीप त्रिपाठी "दीप"
ग्वालियर (म. प्र.)