पुरुषार्थ बड़ा जब होता है
पत्थर पर पेड़ भी उगता है
चीर के दिल वो पत्थर का
उस दिल से स्पन्दन लेता है।
ये बीज भी क्या पागल होकर
इस पत्थर पर आकर बैठा होगा
कितने झंझावत झेले होंगे
जब अंकुर इसने फोड़ा होगा।
आग तपी होगी पत्थर पर
लू के थपेड़ों को झेला होगा
पानी पानी चिल्ला कर के
पत्थर के सीने को चीरा होगा।
इस चिकने पत्थर की छाती पर
जब बीज हुआ जज़्बाती होगा
मूल के कोमल स्पर्श को पाकर
पत्थर भी तो हरषाया होगा।
इस बीज के उर के अंतर में
जीने की जिजीविषा होगी
ले जीवन इक पत्थर दिल से
अपना अस्तित्व बनाया होगा।
इस बीज ने क्या सोचा होगा
कि पत्थर पर जीवन पायेगा
गर जिद हो जीत के जीने की
तो "दीप" पत्थर पर लहलायेगा।
इस पत्थर पर उगते पौधे से
कुछ तो सीख तुम अपनाओ
वक़्त अगर अनुकूल न हो
न ठहरो, आगे बढ़ते जाओ।
मत लाचार बनो इस दुनिया में
मत अभावों का रोना रोओ
पुरुषार्थ करो, पुरुषार्थ करो
कुछ काम बड़े, निःस्वार्थ करो।
©प्रदीप त्रिपाठी "दीप"
ग्वालियर (म.प्र.)