याद आये वो बचपन के दिन,
जब गोबर से आँगन लिपते थे,
घर के बीच के आँगन में,
गोबर के गोवर्धन रखते थे।
दिवाली की मिठाई के बाद,
कढ़ी-भात जब बनते थे,
पहली थाली गोवर्धन की थी,
सब बाद में भोजन करते थे।
माँ अपने हाथों से जब,
गोवर्धन के पुतले रचती थीं,
गोवर्धन के साथ-साथ ,
उनकी सखा-मण्डली होती थी।
गोबर की चौखट पर सब,
गाय-बैल भी होते थे,
उन सबके बीच में हम,
अपनी माहिय्यत खोजते थे।
कुछ दिन की मेहमाननवाजी कर,
खेतों को प्रस्थान वो करते थे,
देते आशीष भरपूर वो अपना,
समृद्ध किसान तब होते थे।
इंद्र देव थे घमण्ड में अपने,
तब कान्हा ने गोवर्धन उठाया था,
पर्वत को एक उँगली पर धारण कर,
अपनों को संकट से बचाया था।
©प्रदीप त्रिपाठी "दीप"
ग्वालियर