*कटा पेड़*
जब कटे पेड़ की डाली से
कोपल फूट ही जाती है
खण्ड खण्ड होकर भी वह
फल देकर मुस्काती है।
कटकर भी तुम्हें भुला न सका
वह अपना अस्तित्व बचा न सका
पर जाते जाते इस मृत देह से भी
वह अपना फर्ज़ भुला न सका।
तुम एक पेड़ लगा न सके
किस हक़ से बाग उजाड़ दिए
तुम एक नीड़ तो बना न सके
फिर क्यों कर हज़ार उजाड़ दिए।
ऐ! नर न इतने वार तू कर
प्रकृति का एतबार तो कर
तू प्रकृति को जरा प्यार तो कर
फिर ले आनन्द तू जीवन भर।
इस धृणित कार्य के बदले में भी
देखो ये डाली फल देने को आतुर
इस प्रकृति का उपकार तो देख
इस प्रकृति का उपहार तो देख।
करो माँ और प्रकृति की देखभाल
होते दोनों के हृदय हैं बहुत विशाल
गर जीना है सुन्दर-सुखद जीवन
अपना लो दोनों से सहजीवन।
©प्रदीप त्रिपाठी "दीप"
ग्वालियर (म.प्र.)🇮🇳