एक भूली हुई दास्तान उसे याद आती है ।
वह तो एक बंजर जमीन से आया था । खामोश आकर्षणों की दुनिया से जहां कहां कुछ भी नहीं जाता । मन ही मन में कुछ अरमान करवटें लेते हैं । अनबूझी इच्छाएं आती और चली जाती हैं और कस्बाई सपने छतों पर पहले कपड़ों की तरह धूप उतरते ही बटोर लिए जाते हैं कुछ अनकहे धुंधले से अक्स स्मृतियों में उलझी रह जाते हैं जो ना घटते हैं ना बढ़ते हैं बस पानी की दाग की तरह वजूद के निवास पर नक्श हो जाते हैं
उसका पूरा कस्बा उसके कस्बे का अपना मोहल्ला मोहल्ले की कई खिड़कियां भी उसे मौन हसरत से देखती दिखाई दी थी । कभी-कभी बरसात के दिनों में लौटते हुए पाओं के निशान दिखाई पड़ जाते थे, ज्यादा बारिश हुई तो निशान पहले तो भरी आंख की तरह डूब जाते थे फिर देखते देखते मिट जाते थे, वापस गए पैर फिर नजर नहीं आते थे, कुछ आंखें थी जो कहना तो बहुत कुछ चाहती थी पर उन्होंने कभी कुछ कहा नहीं था |
कहीं कोई काजल लगी आग उलझी थी । किसी खिड़की में हल्की सी कोई परछाई किसी में इशारा करती कोई उंगली । कहीं शर्मा के लौटते हुए अंधेरे अरमान और कहीं किसी मजबूरी की कोई दास्तान ……..
अजीब दिन थे
अजीब दन थे ।
नीम के झरते हुए फूल के दिन ।
कनेर में आती पीली कलियो के दिन ।
न बीतने वाली दोपहरियो के दिन ।
और फर एक के बाद एक, लगातार बीतते हुएदशाहीन दिन ।
उन दिनों भविष्य कहीं था ही नहीं एक व्यर्थ वर्तमान साथ था । जो बस चलता जाता था वह आजादी से ठीक पहले का दौर था । रेलगाड़ियों के आरक्षण की सुविधा और सिस्टम नहीं था । अब उसे याद नहीं विद्या शायद साइंस में थी, पर छुट्टियों साथ साथ होती थी, इसीलिए वह इलाहाबाद स्टेशन पर मिल ही जाते थे । विद्या फतेहगढ़ की थी । तीज त्यौहार और फिर गर्मियों की छुट्टियां अपने अपने घर जाने के लिए एक आध बार तो उससे ऐसे ही मुलाकात हुई फिर जब भी कोई छुट्टी आती तो स्टेशन पर एक दूसरे का इंतजार करने लगे ना मालूम या कैसा लगा था । कि प्लेटफार्म पर एक तब तक रुका रहता था। जब तक दूसरा नहीं आ जाता था, अनकहे तरीके से या तय हो गया था, कि छुट्टियां छुट्टी होने वाले दिन की सुबह पहले पैसेंजर गाड़ी से ही सफर किया जाएगा उन दिनों भी कुछ तेज एक्सप्रेस गाड़ियां चला चलती थी पर उन्हें पैसेंजर की ही पसंद थी वह धीरे धीरे चलती थी और हर स्टेशन पर रूकती थी
उन दिनो को साथ-साथ सफ़र करते, छोटे-छोटे स्टेशनो के नाम रट गए थे। अब बमरौली आएगा। अब मनौरी, अब सैयद सरावां और फर भरवारी और सराथू। उसके बाद फतेहपुर। और फर...फर कानपुर ! स्टेशनो के नाम के साथ-साथ पढ़ते थे और कब स्टेशन पर कितनी जल-छमता वाली टंकी विशाल कुकुरमुमुत्ते की तरह खड़ी है, यह भी उन्हें याद हो गया था। इंजन स्टेशन पर पानी लेगा, यह भी उन्हें पता था। कुछ ऐसा भी था जो दोनो को एक साथ पता था। उनके मन की अन कही इच्छाएं के पल एका एक एक साथ जुड़ जाते थे। अब यही, जैसे भरवारी स्टेशन के समोसे ! अभी वा कहने को ही होती थी क वह बोल पड़ता था–खट्टी चटनी...या फर फतेहपुर के दही के पकौड़ या फिर मीठी चटनी। कभी-कभी वह भागते पेड़ एक को सहसा एक साथ देखते थे। फर कुछ स्टेशन का साथ और...चाहते तो दोनो नहीं थे, पर कानपुर आ ही जाता था। वह उतर कर फतेहगढ़ वाली गाड़ी बदलती थी। कानपुर से उसे छोटी लाइन पकड़नी होती थी, जसका उसका प्लेटफार्म आखरी था में बड़ी लाइन के कई प्लेटफार्म थे। उन दन दिनों ‘टाटा’ और ‘बॉय-बॉय’ नहनहीं होता था। फ्लाइंग किस तो था ही नहीं । खामोशी की गहराई ही शायद लगाव का पैमाना था। वह चुपचाप उतरती थी। वह उसका झोला या टीन का छोटा बक्सा या किताब का बस्ता उठाकर थमा देने में मदद कर देता था। उन दन लेट होने पर गाड़याँ भी एक-दूसरे का इतज़ार कर लेती थी वह अक्सर ’कहकर पुल पर चढ़कर अपनी गाड़ीवाले प्लेटफार्म पर चली जाती थी। वह उसे छोड़ने या विदा देने नहीं जा पाता था, क्योंकि मेन लाइन की गाड़ी छूट सकती थी। कानपुर से उसका सफ़र शकोहाबाद जंक्शन तक जारी रहता था, जहाँ से वह ब्रांच लाइन क की गाड़ी पकड़कर अपने मैनपुरी पँहुचा करता था। माँ के पास। शकोहाबाद से मैनपुरी तक के तीन स्टेशन के नाम तो उसे याद थे, पर कहाँ, किस स्टेशन पर पानी की टंकी थी और छोटे से सफर में कौन से पेड़ साथ दौड़ते थे, वे उसे याद नही थे। वा भी सफ़र में साथ होती, तो शायद उसे वे पेड़ याद रहते। छुट्टियों से लौटने का दिन और इलाहाबाद तक जाने वाली पैसेंजर गाड़ी भी अनकहे तरीके से तय हो गई थी वह लौटते समय कानपुर तक में लाइन की गाड़ी से आता था लेकिन कानपुर से पैसेंजर ही पकड़ता था छोटी लाइन से आकर विद्या उसे प्रतीक्षा करती मिलती थी
मिलना प्रतीक्षा और साथ साथ साल सफर करना यह 2 साल तक चलता रहा। फिर वह वर्ष भी आया गर्मी की लंबी छुट्टियां । हुई वही इलाहाबाद स्टेशन। वही पैसेंजर गाड़ी लेकिन इस बार स्टेशनों का नजारा कुछ बदलता हुआ था । गाड़ी में चढ़ने वाले मुसाफिर औसत से ज्यादा खामोश है । सैयद सरावां स्टेशन पर जब स्टेशनों से ज्यादा भीड़ मिली । सफर में ज्यादातर मर्द ही मिलते थे। पर इस बार उनके साथ औरतें और बच्चे भी थे। तीन के बक्सों गौरव गटरी ओं बूटियों वाला सामान भी जरूरत से ज्यादा था । गाड़ी छुट्टी तो प्लेटफार्म पर रुककर कोई खुदा हाफिज कह कर विदा करने वाला नहीं था। मुसाफिरों में चलती आपसी बातचीत के दौर दौरान पता चलता था । कि वह किसान खानदान पहले अलीगढ़ जा रहे थे । वहां से पाकिस्तान चले जाएंगे ।
आखिर कानपुर स्टेशन का याद गुजरने लगा गाड़ी की रफ्तार धीमी पड़ने लगी विद्या को तो यही उतरना था । प्लेटफार्म आया विद्या उत्तरी हमेशा की तरह उतर कर उसने विद्या को सामान थमाया तब विद्या ने इतना ही कहा था । शायद आगे की पढ़ाई के लिए मैं अगले वर्ष ना आ सकूं क्यों घरवाले यही चाहते हैं । या एक से सूचना थी जिसने जिससे दोनों ने ही कुछ असहज महसूस किया था । उनके बीच अलिखित और अव्यक्त भावनाओं का रिश्ता तो शायद बहुत गहरा था परंतु कहीं कुछ ऐसा नहीं था जो उन्हें कोई उत्तर मांगने के लिए विवश करें।
आखिर छोटी लाइन की अपनी गाड़ी पकड़ने के लिए वह पुल पर चढ़ने लगी विद्या की गाड़ी छूटने का समय हो रहा था और गाड़ी उसकी गाड़ी भी छूटने को थी और बस तब इस दास्तान में इतना ही हुआ था। कि पुल पर पहुंचकर अपने प्लेटफार्म की तरफ मरने से पहले विद्या ने अपना रुमाल ऊपर से गिराया था । उसकी गाड़ी उसे उसी समय आखिरी सिटी देकर खिसकने लगी थी। उसका डिब्बा भी काफी आगे था । उसने रुमाल को गिरते हुए देखा था उसके लिए वह अटका भी था । पर प्लेटफॉर्म छोड़ती गाड़ी को वह नहीं छोड़ पाया था सफर तो सफर था और फिर डिब्बे में उसका झोला लावारिस पड़ा था। जिसमें उसकी किताबें कापियां और कल में थी।
विद्या का रुमाल तो वह नहीं उठा पाया पर अपने सफर को भी बार नहीं तोड़ पाया चलती गाड़ी में वह चढ़ा और अपनी जगह आकर बैठ गया आगे का सफर जारी था। उसका भी और उन साथियों का भी जो अलीगढ़ होते हुए पाकिस्तान जा रहे थे। विद्या का भी जो गाड़ी बदलकर फतेहगढ़ की ओर चली जा रही होगी बैठे बैठे भाई यही सोचता रहा कि अगले साल विद्या नहीं आएगी इसका सीधा मतलब यही है कि उसके घर वालों ने कही उसका रिश्ता तय कर दिया होगा। और इन्हीं गर्मियों में उसकी शादी हो जाएगी शिकोहाबाद जंक्शन आया तो वह उतर पड़ा उसे मैनपुरी वाली गाड़ी पकड़नी थी । पाकिस्तान जाने वाले मुसाफिरों का सफर अलीगढ़ की तरफ जारी था। उन गर्मियों के बाद फिर विद्या उसे नहीं मिली पता नहीं वह कहां किस सफर पर निकल गई ।
बस इतना जरूर हुआ कि जिंदगी के इस लंबे सफर में जब भी वह कानपुर स्टेशन से गुजरा तो वह रुमाल हमेशा उसे गिरता हुआ दिखाई देता रहा, दिखाई ही नहीं देता रहा व रुमाल सचमुच गिरता रहा पर रुमाल आज भी गिरता है। फिर कई बसों के बाद जब वह कई नौकरियों और कई शहरों को छोड़ता हुआ। शहर मुंबई में टिक कर काम करने लगा तो उसे एक अजीब सा रहस्य भरा खत मिला उसका लिफाफा खुद अपने सफर की कहानी बता रहा था । वह उसके पिछले कई पतों से रीडायरेक्ट होकर उस तक पहुंच गया था उसने कई बार कटे हुए पतों को देखा था सिर्फ उसका नाम ज्यों का त्यों था ।
मेहरबान हाथों ने अलग अलग लिखावट में उसका नाम पता दर्ज किया था ।तब उसे लगा था कि खत अगर मन से भेजा जाए तो कई जन्मों के बाद भी पहुंचने वाले तक पहुंच ही जाता है। पांच पतों से लौटते हुए लिफाफे को उसने बहुत इतिहास से खोला था मजमून पढ़ा तो रहस्य बहुत गहरा गया था लिखा था । अजीब ए आलिया किसी को दिल देकर दिल कोई नवाज तुझे मुखवा क्यों हो ना हो जब दिल ही सीने में हो तो फिर मुंह में जुबान क्यों हो क्या गम ख्वार ने रुसवा लगे आग इस मोहब्बत को ना लाए दाग जो गम की वह मेरा राजदा क्यों हो वफा कैसी कहां का एक जब सर फोड़ना ठहरा तो फिर संगो दिल तेरा ही आस्था क्यों हो खुदा हाफिज खत में कोई नाम नहीं था। पता भी नहीं था उसे खत के संबोधन ने भी चौक आया था एकाएक उसका ध्यान विद्या की ओर गया था ।
मजमून में बात की जो अनुरोध थी वह उसकी हो सकती थी और फिर अजूबे आलिया वाला संबोधन शायद वाह उसकी सादगी उसकी जिंदगी की खोज खबर लेती रही हो अंदाज से उसने पहला पता लिखा हो कि शायद खत पहुंच जाए फिर तो मुखपत्र मेहरबानो ने बदले थे लेकिन सबसे ज्यादा हैरत में डालने वाली बात तो यह थी कि विद्या तो साइंस की विद्यार्थी थी उसे हिंदी तो फिर भी आती थी लेकिन उर्दू का तो एक हल्क भी नहीं आता था और फिर अंत में खुदा हाफिज नहीं नहीं या विद्या तो हो ही नहीं सकती थी या और कोई भी हो विद्या नहीं हो सकती और तब यह दास्तान और ज्यादा रहस्यमई बन गई थी आश्चर्यजनक और अजीबोगरीब हुआ याद था कि